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19 जैन धर्म में यक्षिणियाँ
इष्ट देव ओझा
जैन धर्म में यक्षिणियों का जिनों की सहायक देवियों के रूप में उल्लेख मिलता है। यक्षिणियाँ हिन्दु धर्म की दुर्गा, चामुण्डा जैसी देवियों की सदृश्य दिखाई देती हैं। जैन देव मण्डल में इनका स्थान लोक देवियों के रूप में दिखाई देता है। ऐसी धारणा है कि इन्द्र ने 24 तीर्थंकरों की सेवा हेतु 24 यक्षिणियों की कल्पना की तथा बाद में कलाकारों द्वारा इन्हें मूर्त रूप प्रदान किया गया। भरहुत एवं सांची के तोरण द्वार से प्राप्त अश्वमुखी यक्षी की मूर्तियों की शारीरिक बनावट उनके अंगों की कोमलता एवं विषय वासना से युक्त स्वरूप को उकेरने में समकालीन कलाकारों को सफलता मिली। जैन धर्म में 24 यक्षियों के स्वतंत्र अंकन में उनकी लाक्षणिक विशेषताओं का पूर्णतः पालन नहीं किया गया है। इनकी लाक्षणिक विशेषताएं स्वतंत्र रूप से 10वीं 12वीं शती के साहित्यिक ग्रन्थों में मिलती हैं। 24 यक्षिणियों की मूर्तियों का निर्माण लोकमंगल की भावना से प्रेरित दिखाई देता है। देवकोटि में यक्षिणियों को सम्मिलित करने के कारण इनकी मूर्तियों की भव्यता अत्यन्त आकर्षक दिखाई देती है। ___ यक्षियों के सबसे प्राचीन उल्लेख हमें वाल्मीकि के रामायण में मिलता है। जिसमें वाल्मीकि जी ने एक अश्वमुखी यक्षी को परिकल्पना की है। एक स्वप्न में भरत ने देखा कि काले लोहे की चौकी पर महाराजा दशरथ बैठे हैं उन्होंने काला वस्त्र पहना है और काले एवं पिंगल वर्ण की स्त्रियाँ उनके ऊपर प्रहार करती हैं