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श्रमण-संस्कृति अस कुछ संत ज्ञान-अभिमाना।घोषित स्वयम् कहहिं भगवाना। निज-निज स्वार्थ शक्ति अनुसारा। धर्म प्रचार करहिं संसारा। संग्रह अर्थ धर्म प्रभुताई। मानत मुख्य संत-समुदायी। फल अनुसार धर्म आधारा। बांटल समस्त मनुज-परिवारा। प्रेरित राजनीति से लोगू। धर्म-विभेद करहिं उपयोगू। मनुज-प्रेम, बंधुत्व-महाना। बदलत घोर घृणा, अपमाना।।"
आज के समय में विज्ञान ने खुब प्रगति की है जिससे, मानव कल्याण का अधिकांश कार्य हो रहे हैं। वहीं दूसरी ओर यही विज्ञान ने मानव सृष्टि को ही विनाश के कगार पर ला खड़ा कर दिया है। विज्ञान ने जो आणविक अथियारों का निर्माण किया है, वह अपने सुरसा मुख को फाड़े पूरी मानव सृष्टि को ही निगलने के लिए तैयार बैठा है।
करत प्रशंसा अस विज्ञाना। चिंता एक बसत मन-प्राणा। जे अणुशक्ति सुलभ निर्माणा। होत सोई पुनि प्रलय समाना।। प्रक्षोपास्त्र विविध बहु दूरी। समुझत अणु-हथियार जरूरी। करहिं - प्रदर्शित शक्ति अपारा। मनुज आज जह-तँह संसारा। अस अणुशक्ति सुलभ जग माहीं। हुइहें प्रलय अगर टकराहीं। देखल विश्व-युद्ध मँह लोगू। प्रलय-रूप जब भइल प्रयोगू। सकल विश्व मरघट बन जाई। जड़-चेतन जईहें मुरझाई। मानव-मूल्य विश्व-इतिहासा। ज्ञान, सभ्यता होइ विनाशा।।18
ऐसे में विश्व की रक्षा आपसी प्रेम, भाईचारा एवं विश्व शान्ति के प्रयास से ही हो सकता है, जो कि महात्मा बुद्ध के द्वारा बताए गए मार्गों से ही सम्भव
है।
समाज का हर वर्ग धन लोलुपता में लिप्त है। जन सेवा को भी लोगों ने व्यापार बना दिया है। समाज में पे भी पतित लोगों की भरमार है, जो पैसे के लिए राष्ट्रीय सम्पत्ति एवं राष्ट्र को अस्मिता तक बेचने के लिए तैयार बैठे हैं।
बंदी जन-सेवा-रत लोगू। जे धन-लोलुप केन्द्रित भोगू। जे निज स्वार्थ-हेतु संसारा। समुझत जन-सेवा व्यापारा।