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श्रमण-संस्कृति
ये सभी ईंटें स्तूप के गर्भ से प्राप्त हुई थीं। स्तूप के नीचे ईंटों के खण्डित अवशेष दिखलायी पड़ते हैं। धर्मराजिका स्तूप का भाग बराबर है। राजा कनिष्क के समय सर्वप्रथम इसका विस्तार हुआ। इसी कारण इस स्तूप की दूसरी सतह से प्राप्त ईंटों की माप 17" x 10 1/2" x 2 3/4" है। पुन: पांचवी छठी शताब्दी में धर्मराजिका का जीर्णोद्धार हुआ। उस समय स्तूप के चारों ओर 16' का चौड़ा प्रदक्षिणा पत्र बनाया गया जिसके बाहरी भाग के चारों ओर 4' x5" का एक आकार बना हुआ था। इसके चारों तरफ द्वार भी थे।" सातवीं शताब्दी में उक्त प्रदक्षिणा पथ को पाटकर पत्थर की चार सीढ़ियां बना दी गयीं। मूलतः यह अण्डाकार था जिस पर एकाश्म वेदिका बनी हुई थीं। सारनाथ से सन् 1027 ई० में प्राप्त अभिलेख से ज्ञात होता है कि इस स्तूप का नाम धर्मराजिका है तथा स्थिरपाल एवं वसन्तपाल द्वारा इसका जीर्णोद्धार किया गया था यथा -
सफली कृतपाण्डित्यौ बोधावविनिवर्तिनौ। तौ धर्मराजिका सांगं धर्मचक्रपुनर्भवं ।। कृतवन्तौ च नवीनाममहास्थान शैलगंध कुटी।
एतां श्री स्थिरपालो वसन्तपालौ नुजः श्रीमान्।।4 ह्वेन सांग ने अपने यात्रा विवरणों में सारनाथ के स्तूपों का वर्णन करते हुए कहा है कि स्तूपों के आस-पास छोटे- छोटे मनौती स्तूप थे। इस स्तूप की ऊंचाई इसी समय 300 फिट थी। स्तूप बुद्ध के बुद्धत्व प्राप्ति के जीवन की प्रथम महत्वपूर्ण घटना धर्मचक्रप्रवर्तन का बोध कराता है। धर्मराजिका नाम संकेत करता है कि अशोक ने बुद्ध के शरीर के अवशेषों को निकालकर अन्य अनेक स्तूपों में रखवाया तथा इस स्तूप का निर्माण संभवतः वहाँ किया गया जहाँ बुद्ध निवास करते थे।" धर्मराजिका स्तूप के चारों ओर लगी एकाश्म वेदिका चुनार के बलुआदार पत्थर को काटकर बनायी गयी थी। मूलगंधकुटी के पास से चैत्य के समीप 1904-05 ई० में ओर्टल को यह वेदिका मिली थी। इस वेदिका की लम्बाई 264 सेमी० और ऊंचाई 156 सेमी० थी। यह वेदिका धर्मराजिका स्तूप की चोटी पर लगाई गयी थी, जिस पर सर्वास्तिवादी आचार्यों का लेख खुदा है। कुषाण काल में इस वेदिका को स्तूप से उतार