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श्रमण-संस्कृति में महिलाओं की तुलना 5 प्रकार से की गई है - गुस्सैल, चिड़चिड़ी, द्विशाखित जुबानबाजी (बोलने वाली), इतनी विषैली की मार डाले तथा मित्रघातक। जातक ग्रन्थों में भी महिलाओं के प्रति अत्यन्त अपमानजनक बातें कही गई है। इनमें कहा गया है कि औरतें संन्यासियों को उनके लक्ष्य से पथभ्रष्ट कर देती है। चुल्ल--पदुम जातक में बोधिसत्व के माध्यम से बताया जाता है कि किस प्रकार उसने अपनी प्यासी पत्नी की प्यास बुझाने के लिए अपने घुटने से रक्त (खून) निकालकर दिया और बदले में उसने उसकी हत्या करने की कोशिश की और वह एक अपराधी प्रवृत्ति के व्यक्ति के साथ रहने लगी। इसी ग्रन्थ में एक अन्य स्थान पर बोधिसत्व कहते हैं - "भिक्षुओं! जब मैं जानवर के रूप में जीवन व्यतीत कर रहा था, तब भी मैं नारी जाति की अकृतज्ञता, छल, दुष्टता और लंपटता के विषय में अच्छी तरह जानता था, और उस समय उनके नीचे रहने के बजाये मैंने उन्हें अपने नियंत्रण में रखा था। एक अन्य जातक ग्रन्थ में यह कहा गया है - बोधिसत्व अपने पिता से कहते हैं - यदि औरतें इस घर में आती हैं तो मन की शांति न मुझे मिलेगी और न आपको।'
अब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि बुद्ध द्वारा उपदेशित धर्म जिसका आधार लैंगिक समानता था, मैं बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद महिलाओं के प्रति इतनी दुर्भावना क्यों प्रदर्शित की जाने लगी।
ऐसा देखा जा सकता है कि बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद बौद्ध धर्म पर ब्राह्मण धर्म (हिन्दु धर्म) का प्रभाव बढ़ने लगा। बौद्ध धर्म में तपस्वीकरण, ब्राह्मणीकरण, मंत्रीकरण, और मूर्तिपूजा जैसी बातों को अपनाया जाना इसी बात को सिद्ध करता है। यहाँ यह तथ्य ध्यान देने का है कि प्राचीन भारतीय समाज पुरुष प्रधान था। यद्यपि प्रारंभिक वैदिक ग्रन्थों में महिलाओं को पुरुषों के समान माना गया था, उनकी स्थिति दयनीय हो गई। जिन लोगों ने ब्राह्मण धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म स्वीकार किया था, वे प्रारम्भ में ब्राह्मण धर्मानुयायी थे। ऐसा प्रतीत होता है कि वे अपने पुरुषवादी सोच को पूरी तरह नहीं छोड़ पाये थे। जबतक बुद्ध जीवित रहे, उनके व्यक्तित्व के सामने ये लोग चुप रहे
और अपने विचारों को व्यक्त नहीं कर सके। लेकिन बुद्ध जैसे महान व्यक्तित्व के अभाव में, आक्रामक पुरुष प्रधान प्राचीन भारतीय समाज के प्रभाव से ये