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राजस्थानी की प्रमुख जैन काव्यशास्त्रीय रचनाएं
राजस्थानी साहित्य समृद्ध भाषा है। इसमें 10 वी शताब्दी के उत्तरार्द्ध से ही विविध विधाओं में साहित्य लिखा जाता रहा है। इन्हीं विधाओं में एक महत्वपूर्ण साहित्यिक परम्परा है-लक्ष्ण ग्रन्थों अथवा काव्यशास्त्रीय रचनाओं के सजन की। यद्यपि इस परम्परा का उद्गम भारतीय वाङ्मय में संस्कृत के लक्षण ग्रन्थों से माना जाता है किन्तु विकासात्मक दृष्टि से राजस्थानी लक्षण ग्रन्थों के लेखन की परम्परा को प्राकृत और अपभ्रंश की काव्यशास्त्रीय अवधारणाओं से मानना उचित होगा। राजस्थानी काव्यशास्त्रीय रचनाओं में विवेचित अनेक छन्दों का ब्यौरा हम गाहा सतसई, प्राकृत पैंगलम्, भविसयतकहा, छन्दानुशासन, छंदकोश आदि प्राकृत-अपभ्रंश लक्षण रचनाओं के विवेचन के निकट पाते हैं। इसके दो कारण संभव है-प्रथम, राजस्थानी का प्राकृत एवं अपभ्रंश से विकसित होना, तथा द्वितीय, प्राकृत-अपभ्रंश के अधिकांश लक्षण-ग्रंथ कर्ताओं का जैन होना ।इन्हीं दो प्रवृत्तियों से राजस्थानी जैन काव्यशास्त्रियों ने प्रेरणा लेकर लक्षण-ग्रंथों का निर्माण किया। संभवतः इसी प्रभाव से राजस्थानी जैन काव्यशास्त्रियों की रचनाओं में रस, ध्वनि, नायिका-भेदों की अपेक्षा छन्द एवं उनके प्रस्तार आदि से सम्बन्धित अधिक लक्षण ग्रंथ लिखे गये।
इन काव्याशास्त्रियों ने नाममालाएं भी लिखीं, जिनकी परम्परा पाइअनामलच्छीमाला से जोड़ी जा सकती है। जैनियों की यहीं परंपरा यहां के जैनेत्तर काव्यशास्त्रियों के लक्षण-ग्रंथों में भी मिलती है। काव्यशास्त्रीय रचनाओं के साथ नाममालाओं के संकलन एवं विवेचन के विषय में जैन अथवा जेनेत्तर किसी काव्यशास्त्री ने कोई ठोस तर्क या संकेत नहीं किया। इस संदर्भ में हमारी यही संभावना है कि शब्द शक्तियों के माध्यम से काव्य का अर्थ निश्चित किया जाता है, अतः नाममालाओं