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________________ राजस्थानी की जैन-प्रेमाख्यानक रचनाएं कलावती का चित्र देखकर उस पर मुग्ध हो गया। अनेक विपदाओं को दूर कर उससे विवाह किया। तदुपरान्त अन्य प्रेम कथाओं और जैन आख्यानों के अनुरूप कलावती के कष्टों का काव्य में वर्णन हुआ है और अन्त में कलावती के शीलधर्म एवं प्रेम की एकनिष्ठता की रक्षा करते हुए शंख कुमार का मिलन कराया गया है । कथा का अन्त उनके पूर्व भव की कथा के साथ किया गया है । इस प्रकार आलोच्य रचना माधवानल कामकंदला कथा से प्रभावित लगती है। वहां भी माधवानल के सौंदर्य पर नगर की स्त्रियां आसक्त कही गई हैं । कुशललाभ कृत माधवानल कामकंदला चौपई में भी यही कथातंतु मिलता है। जैन प्रेमाख्यानक रचनाओं के अध्ययन से स्पष्ट होता हैं कि ये रचनाएं रास, चरित्र, फागु, विलास, विवाहलो, वेलि, ढाल आदि शीर्षकों में रचित हैं। अधिकांश रचनाएं प्रबन्धात्मकता लिये हुए हैं जिनकी विषयवस्तु लोक में प्रचलित जैन नायक-नायिकाओं की प्रेमकथाओं से सम्बद्ध हैं। ये नायक-नायिका राजकुल के राजकुमार-राजकुमारियों या राजकुल से सम्बन्धित मंत्री, प्रोहित, सामन्त, सेठ के पुत्र-पुत्रियां हैं । इनमें प्रेम का प्रारंभ प्रत्यक्ष-दर्शन और रूप-गुण-श्रवण द्वारा हुआ है। नायक-नायिकाओं में प्रेमोद्दीपन एवं उनके संयोग में सहायक तोता, मंत्री-पुत्र, भाट, सखियां आदि पात्र हुए हैं। इस संयोग में उन्हें मार्ग में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है । नायिका की प्राप्ति के उपरान्त पुनः अपने घर लौटते हुए पहले से भी अधिक विपदाओं (ओखा) का पुनः सामना करना पड़ता है, यथा, राक्षसियों द्वारा नायक को रोकना', नायक-नायिका के विश्रामस्थल की छत का गिरना आदि । किन्तु इन बाधाओं से वे विद्याधरों-विद्याधारियों, वैताल, नायक द्वारा इनसे प्राप्त जादुई विद्याओं, शिव-पार्वती आदि की सहायताओं से मुक्त हुए हैं। सभी जैन प्रेमाख्यानों का प्रारंभ मंगलाचरण द्वारा हुआ है। ये मंगलाचरण सरस्वती वंदना के साथ गुरुवंदना, जिनप्रभु आश्रयदाता अथवा तत्कालीन शासक की स्तुति के साथ हुआ है । मंगलाचरण के बाद जंबूद्वीप, शत्रुजय गिरि, समेदशिखर आदि का स्मरण करते हुए कवि ने अपना परिचय दिया है। तदुपरान्त रचना का आरंभ विस्तार से अनेक घात प्रतिघात युक्त घटनाओं के साथ हुआ है। प्रायः सभी जैन प्रेमाख्यानक रचनाओं का अन्त पूर्व भव के वृत्तान्त के साथ हुआ है। इससे यह 1. तेजसार रास चौपई; जिनपालित जिन रक्षित संधिगाथा (कुशललाभ),पुण्यसार चौपई (समयसुंदर) 2. अगड़दत्तरास (कुशललाभ); कमलावतीरास (रिख साधु)
SR No.022847
Book TitleRajasthani Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmohanswarup Mathur
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year1999
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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