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राजस्थानी की जैन-प्रेमाख्यानक रचनाएं
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कुवलयमाला, वासुदेव हिण्डी, जिनहर्षगणि विरचित रणयसेहरीकहा आदि तथा अपभ्रंश की धनपाल कृत भविसयतकहा, पुष्पदन्तकृत नयकुमार चरिउ, नयनंदी रचित सदसण-चरिउ, लाखू की जिणदत्त चरिउ आदि चरिउसंज्ञक रचनाएं इस दृष्टि से प्राकृत एवं अपभ्रंश के उल्लेखनीय प्रेमाख्यान हैं।
यों तो इन रचनाओं का मुख्य लक्षण जैन सम्प्रदाय (धर्म) सम्बन्धी आचार संहिता की शिक्षा देना है किन्तु इन शिक्षाओं को अधिक उपादेय एवं लोकप्रिय बनाने के लिए इनका आरंभ शृंगारिक प्रवृत्ति से किया है और अन्त शान्त रस में । यही शैली साहित्य जगत् में जैन शैली नाम से जानी जाती है।
राजस्थानी में रचित जैन कवियों के प्रेमाख्यान भी इसी शैली में वर्णित है। साथ ही मूल आख्यान भी प्राकृत-अपभ्रंश से गृहीत है। इसके प्रमुख दो कारण सम्भव है—प्रथम, मरुगुर्जर संज्ञक भूभाग में तब वर्तमान राजस्थान का बहुत बड़ा भू भाग सम्मिलित था, जिसमें प्राकृत और अपभ्रंश एवं उनके विभिन्न रूप प्रचलित थे। द्वितीय अपभ्रंश के बाद ही उसके विभिन्न रूपों से भारत के विभिन्न भूभागों की देशज भाषाएं विकसित हुई। अतः अपभ्रंश साहित्य का राजस्थानी जैसी प्रान्तीय भाषा की साहित्यिक शैली को प्रभावित करना स्वाभाविक ही थी । इस प्रकार राजस्थानी के जैन प्रेमाख्यानों की कथ्य और शैली की दृष्टि से अपभ्रंश जैन प्रेमाख्यानों के निकट ही मानना चाहिये । इस आधार पर यह भी स्पष्ट है कि राजस्थानी जैन प्रेमाख्यानों की परम्परा प्राचीन है। 13 वीं शताब्दी से तत्सम्बन्धी प्रसंगों का उल्लेख होता रहा है। इन सभी का परिचय देना स्थानाभाव के कारण कठिन है। अतः यहां हम उल्लेखनीय राजस्थानी जैन प्रेमाख्यानों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं। 1. सिरि थूळिभद्र फागु'
अन्य प्राप्त प्रतियों में इसका नाम सिरि थूलिफाग भी मिलता है । फाग काव्य शैली की यह सर्वाधिक प्राचीन रचना मानी गई है। इसका रचयिता जैनाचार्य जिनपद्मसूरि है । इन्हे वि.सं. 1390 में आचार्य पद प्राप्त हुआ तथा निर्वाण वि.सं. 1400 में । अतः इस रचना का निर्माण काल इन्हीं 10 वर्षों के मध्य मानना उचित होगा।
1. सं. चीमनलाल दलाल-प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह, 1920 ई. 2. प्रो. मर. मजमूदार-गुजराती साहित्य ना स्वरूपो, आचार्य बुक डिपो, बडोदरा, पृ. 214