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________________ 30 राजस्थानी जैन साहित्य सामेरी (सावेरी), जयंतसिरी (जैतश्री), वैराड़ी रागे सांयकालीन रागे हैं। इनके अतिरिक्त गोड़ी, केदार गौड़ी-सिंधु आदि शृंगारिक रागों का भी जैन कवियों ने अत्यधिक प्रयोग किया है । वस्तुतः ये रागे जैन काव्यों के लक्ष्यानुकूल रागे हैं। जैन-कथाकाव्यों का आरंभ शृंगार से होता है और अवसान शम से । शृंगार रस के माध्यम से जैन यति जीवन की निःसारता को सिद्ध करते हैं । 1. अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये जैन कवियों ने लौकिक बंधों एवं ढालों का भी प्रयोग किया है। लौकिक बंधों में प्रमुख रूप से कड़वक, धत्ता, घात, काव्यबंध का प्रयोग अधिक हुआ है । अपभ्रंश छंदशास्त्रियों के मतानुसार ये सब एक ही बंध कड़वक या धत्ता के नामभेद हैं। 1 प्रत्येक कड़वक की समाप्ति पर धत्ता देने का नियम है। कड़वक में कुल आठ या 16 पंक्तियां होती है । जिनदत्त सूरि, कुशलधीर, कुशललाभ, जयलाभ, समयसुन्दर, हीरकलश, आदि कवियों में इस लौकिक बंध का प्रयोग देखा जा सकता है । दोहा, सोरठा, कवित्त, छप्पय, उल्लाला आदि तद्युगीन प्रचलित शास्त्रीय छन्द हैं, जिन्हें गेयता की दृष्टि से इन कवियों ने ग्रहण किया । लौकिक छंदों की भांति ही इन कवियों ने अपनी रचनाओं को प्रचार की दृष्टि से अधिक ग्राह्य बनाने के लिये उस युग में प्रचलित गाने की धुनों को भी ग्रहण किया । इन्हीं प्रचलित धुनों को ढाल अथवा तर्ज कहा जाता है । आज भी गीतों की यह प्रणाली प्रचलित हैं। कई फिल्मी गीतों की ढाल (तर्ज) पर अनेक लोककवि गीत लिखते मिलते हैं। घर की महिलाएं बनड़े - बनड़ी, जच्चा इत्यादि जोड़ती दिखायी देती । आजकल की पैरॉडिया " ढाल” के समानान्तर ही कही जा सकती है । हैं जैन कवियों द्वारा ये ढालें अथवा तर्जे कुछ तो शास्त्रीय रागों पर लोक- धुनों से संबंधित हैं तो कुछ छंदों पर और कुछ उस समय में प्रचलित गीत, लोक-गीत, कथागीत अथवा समकालीन कवियों के गीतों को किसी पंक्ति विशेष पर गेयता की दृष्टि से जैन -काव्य में इन ढालों का विशेष महत्व है । देवेन्द्र कुमार 'जैन- अपभ्रंश भाषा और साहित्य, पृ. 108
SR No.022847
Book TitleRajasthani Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmohanswarup Mathur
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year1999
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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