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________________ वाचक कुशललाभ का जैन साहित्य को योगदान 101 इस परम्परा का प्रथम ग्रंथ है। कशललाभ की उक्त वर्णित रचनाओं को मुख्य रूप से इन चार भागों में विभक्त किया जा सकता है—(1) प्रेमाख्यानक रचनाएं, (2) जैन भक्ति सम्बन्धी रचनाएं, (3) पौराणिक साहित्य और, (4) रीति सम्बन्धी रचना । इन सभी वर्गों की रचनाओं के शिल्प की अपनी विशेषताएं हैं। अधिकांश प्रेमाख्यानक रचनाओं में अधिकारिक कथा का आरंभ प्रायः किसी निःसंतान राजा अथवा पुरोहित द्वारा संतान प्राप्ति के प्रयत्न वर्णन से हुआ है। देवी-देवता अथवा अन्य पवित्र स्थल की “जात" देने पर उस राजा के यहां पुत्र या पुत्री का जन्म हुआ है । युवा होने पर किसी अपराध में अपने पिता से कहा सुनी होने पर या राजाज्ञा से नायक को घर छोड़ना पड़ा है। इसी निष्कासन से नायक के वैशिष्ट्य द्वारा कवि ने इन रचनाओं में प्रेमतत्व को उभारा है। ___कुशललाभ ने अन्य समकालीन जैन कवियों की तुलना में नायक-नायिकाओं में प्रेम का आरंभ प्रत्यक्षदर्शन और रूप-गण-श्रवण द्वारा कराया है। नायक-नायिका में प्रेमोद्दीपन एवं उनके संयोग में तोता, मंत्रीपुत्र, भाट, खवास, सखियां सहायक हए हैं। नायिका की प्राप्ति के पश्चात् जब नायक पुनः अपने निवास को लौटता है तो मार्ग में उसका प्रतिनायक के साथ युद्ध दिखलाया है, जिसमें नायक विजयी होकर जैसे ही आगे बढ़ता है नायिका की मृत्यु हो जाती है । इसके पश्चात् नायिका को पुनर्जीवन योगी-योगिनी2 अथवा विद्याधरों द्वारा दिया जाता है। इस प्रकार के कथा-संयोजन से कुशललाभ ने जैन कथा-साहित्य को सुघर शिल्प प्रदान किया है। जैन कथानक सम्बन्धी रचनाओं में नायक के स्वदेश लौटने पर किसी गुरु ने उसे दीक्षित किया है। तदुपरान्त नायक अपने बड़े पुत्र को राज्य सौंप कर संन्यासी बनते चित्रित किया गया है, जबकि जैनेतर रचनाओं में सुखमय पारिवारिक जीवन के साथ कथा का अन्त किया गया है । इस प्रकार कुशललाभ मध्यकाल का ऐसा जैन कवि है जो राज्याश्रित था। उसने जैन और जैनेतर विषयों पर रचनाएं की, किन्तु उसने मात्र जैन-धर्म को ही स्थापित करने की चेष्टा नहीं की। उसने जन-भावनाओं एवं तत्कालीन परिवेश को भी पहचाना और उनका सूक्ष्मता के साथ निरूपण भी 1. ढोला मारवणी चौपई, अगड़दत्त रास, भीमसेन हंसराज चौपई। 2. ढोला मारवणी चौपई और भीमसेन हंसराज चौपई। 3. अगड़दत्त रास, तेजसार सस, भीमसेन हंसराज चौपई ।
SR No.022847
Book TitleRajasthani Jain Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmohanswarup Mathur
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year1999
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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