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धर्मपरी०
॥ ३८ ॥
काढ्यो तापसे श्रम तो, फोगट विगोयो कांइ साधरे ॥ सू० ॥ १७ ॥ घरढा तापस तव बोलीया, सांजल मूढ गमाररे ॥ नारी विना तुं वांकीयो, ब्रह्महत्या पग पग साररे ॥ सू० ॥ १७ ॥ पुत्र विना सद्गति नहीं, स्वर्ग मुक्ति नवि होयरे ॥ पुत्र तणुं मुख जोइने, तापस दीक्षा धरे सोयरे ॥ सू० ॥ १७ ॥ मोटो अपराध तुमे कर्यो, थाल विचे चोट्यो तेहरे | पापी नर जाणी उठीया, मूकी जाणां जय गेहरे ॥ सू० ॥ ॥ २० ॥ मंडपकौशीक एम जणे, सांजलो तापस राजरे ॥ बुढो देखी मुज कोण दीए, विप्र कन्या सारे काजरे ॥ २१ ॥ तापस बोल्या सुपो तापस, पुराण स्मृति बोल्युं एमरे || पांच यापद जे स्त्रीने होये, परणो ते मांहेनी तेमरे ॥ सू० ॥ २२ ॥ नासी गयो नर जेहनो, मरण पाम्यो वली जेहरे ॥ तापस थयो नारी तजी, नपुंसक दुवों पढें तेहरे ॥ सू० ॥ २३ ॥ घरको हुई कंत जे तणो, नारीने आपदा पंचरे ॥ एह मांही जेहवी मले, एक परणो करी संचरे ॥ सू० ॥ २४ ॥ नष्टे मृते प्रत्रजे च, क्लिबे च पतिते पतौ ॥ पंचखापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते ॥ २५ ॥ वीजा खंड तपी कही, ढाल पांचमी वारुरे ॥ रंगविजय कविरायनो, नेम कहे श्रोता सारुरे ॥ सू० ॥ २६ ॥
खंग २
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