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धर्मपरी यतः-प्रथमवयसि पीतं तोयमस्पं स्मरंतः ।
खंग शिरसि निहितनारा नालिकेरा नराणाम् ॥ ॥९४४॥
उदकममृतकल्पं दाराजीवितांतं ।
न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ॥१॥ __ नगर तणुं टालो पुःख देव, जे कहो ते हवे कीजे सेव ॥ सहुको शरण करो, |जिनदत्तनु, जो मन डे तुमने जीवितनुं ॥ १७॥ राजा प्रजा सहु देहरे आवे, पगे| लागी अपराध खमावे ॥ हाथीपर बेसारी शीष, नगर मांहीं आएयो अवनीशे ॥ रए॥ नव्या सुजट थयो जयकार, सोवन वृष्टि करी अति सार ॥ रतन त्रण अमु
लक दीधां, शेठ तणां मनवंडित सीधां ॥ २० ॥ सहुको लोक करे परशंसा, धर्म तणी Nन करे को खींसा ॥ देखो धर्म तणां फल वीर, नवमी ढाल नेमे कही सधीर ॥२१॥
उहा. रतन लेइ ते मुज पिता, शेजय गिरनार ॥ चैत्य करावी अजिनवां, तिलक च-1 माव्यां सार ॥१॥ प्रसेनजीतने श्रापीयां, र तने श्रापीयां, रतन त्रण उदार॥माहरा गुरुनोजक्त ए, ए
॥ १४४॥ मन करी विचार ॥२॥ लोहषुराने वली दीयां, रतन त्रण सुखकार ॥ तेणे द्यूते ते |