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धर्मपरी
॥ १७ ॥
॥ १ ॥ लोक लोकाकाश मोजार, उंचो चौद राज विस्ताररे ॥ मा० ॥ सात राज देवो धो लोक, मेरु कंदथी गणजो थोकरे ॥ मा० ॥ २ ॥ मेरु समो उंचो मध्य लोक, तिहांथी सात राज मोक रोकरे ॥ मा० ॥ अधो सात राज मध्य एक, पूर्वापर करजो विवेकरे ॥ मा० ॥ ३ ॥ ब्रह्म लोक राज बे पांच, एक राज उपर वली खांचरे ॥ मा० ॥ दक्षिण उत्तर सघले तास, वायु ऋण विधो विख्यातरे ॥ मा० ॥ ४ ॥ लोक मध्य उजी तस नाल, चौद राज उंची विशालरे ॥ मा० ॥ त्रस नानि त्रस थावर जरी बे, एक राज विस्तारे करी बेरे ॥ मा० ॥ ५ ॥ बाहेर जरीया थावर पंच, आगम कहीए एवो संचरे ॥ मा० ॥ धनराज जाणो त्रिलोक, त्रणसें तेंताली | थोकरे ॥ मा० ॥ ६ ॥ कटीकर कीधो पुरुषाकार, अथवा मादल दोढ आकाररे ॥ मा० ॥ अर्ध मादल धर्युं धो लोक, श्राखुं मादल उपर कर्यु थोकरे ॥ मा० ॥ ७ ॥ अधो लोक बे नरकावास, ब राज मांहीं सात अवकासरे ॥ मा० ॥ एक राज अधो देगे लोक, थावर पांच जर्यो ते थोकरे ॥ मा० ॥ ८ ॥ लोक त्रणनो घणो विचार, सिद्धांत थकी सुणजो साररे ॥ मा० ॥ कोणे नहीं ए सृष्टि निपाइ, अनादि कालनी एह सदाइरे ॥ मा० ॥ ए ॥ मिथ्याती एम कहे बे केता, जल व्याप्त ब्रह्मांडे वदेतारे ॥
खंग ३
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