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धर्मपरी०
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वाच ॥ ३ ॥ समकित मारे पालतुं, गुरु वयण केम लोपाय ॥ जीव जाये तो पण सही, किम करुं हुं अन्याय ॥ ४ ॥ एवं वयण ते सांजली, रीस चमी वृद्ध जाय ॥ धर्मी थ बेठो हवे, एने केम कदेवाय ॥ ५ ॥ पांच शेरी लइ हाथमां, नाखी सामे लघु जात ॥ लागी मर्म वामे तदा, मरण पाम्यो जीव जात ॥ ६ ॥ साच बोल्याथी ए थयो, मनोवेग कहे ताम ॥ पुनरपि वात कहुं वली, सांजलजो सदु श्राम ॥ ७ ॥
ढाल बीजी.
खाणे पडवे ससरो सूता, पहेले पमवे बाइजी ॥ एक घमीनी ढील करो तो करशुं राजी, बेडो नांजी - ए देशी.
पुरोहित हरिजट्टे जेम लहीन, बंधन ताकन दंग || जेवुं होय तेहवुं जाखतां, तेम मने थाये जंग ॥ सहुको सुणजो ॥ हांरे तुमे सांजलीने मत कोपो ॥ स०॥ ए यांकणी ॥ १॥ द्विजवर पणे मुनि तमे सुणजो, हरिजट्ट तणी कहो वात ॥ याप वीती पढी परकाशजो, सांजलशुं ते ख्यात ॥ सं० ॥ २ ॥ वेशधारिक मनोवेग कड़े तव, सुणजो विप्र सुजाण ॥ श्राडकथा निरमली हुं कहुं हुं, सांजलो सुखनी खाए ॥ स०॥ ३ ॥ अंग देश चंपापुरी नगरी, गुणसागर महाराज || हरि ब्राह्मण राजगर बे तेहना, सेवे भूपति पाय
खंग ३
॥ ६ए ॥