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खंग
धर्मपरी अशुज टख्यां मुज कर्महे ॥ सा ॥सु॥१७॥ श्री हीरविजय सूरि तणो, शुजविजय
शिष्य तेहहे ॥ सा० ॥ नाव विजय शिष्य तेहना, सिफिविजय शिष्य एहहे ॥ सा ॥ ॥६ ॥
सु॥१॥ रूपविजय रंगे करी, कृष्ण विजय कर जोमहे ॥ सा ॥ रंगविजय कविरावजनी, नावे कोश् होडहे ॥ सा ॥ सु० ॥ १५ ॥ खंम बीजो पूरो थयो, ढाल बावीशे सारहे ॥ सा ॥ नेमविजयने नित्य प्रत्ये, जग माहीं जयकारहे॥ सा ॥ सु० ॥ २० ॥
॥ इति श्री हरिहरब्रह्मार्कचंऽयमसुरेंअसुरगुरु देवादि
दूषणनामा द्वितीयोऽधिकारः॥
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