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________________ जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता * 87 यद्यपि जैन धर्म का समकालीन बंधु धर्म, बौद्ध धर्म भारत वर्ष की सीमा में से लगभग अदृश्य हो गया था, फिर भी विद्वानों से उसको आवश्यक न्याय प्राप्त हुआ है। परन्तु जैन धर्म को जो, कि देश में आज तक भी टिका हुआ है और जिसने इस विशाल देश की संस्कृति एवं उसकी राजकीय और आर्थिक घटनाओं पर भी भारी प्रभाव डाला है, विद्वानों से आवश्यक न्याय प्राप्त नहीं हुआ और न आज भी प्राप्त हो रहा है, यह महाखेद की बात है। प्रो. जैनी के कथन के सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है, कि पाश्चात्य दार्शनिकों में से कुछ तो असंदिग्ध रूप से जैन धर्म को प्राचीन और विश्वव्यापी मानते हैं, लेकिन कतिपय विचारक इसे अर्वाचीन और यहाँ तक कि बौद्ध धर्म की शाखा तक कहने से भी नहीं चूके। लेकिन वे स्वयं अपने मत के प्रति निश्चित नहीं रहे। यथा श्री विल्सन कहते हैं, कि सब विश्वस्त प्रमाणों से भी यह अनुमान दूर नहीं किया जा सकता है, कि जैन जाति एक नवीन संस्था है और ऐसा लगता है कि वह सर्वप्रथम आठवीं और नवीं सदी ईसवी में वैभव और सत्ता में आई थी। इससे पूर्व बौद्ध धर्म की शाखा रूप में वह कदाचित अस्तित्त्व में रही हो और इस जाति की उन्नति उस धर्म के दब जाने के बाद से ही होने लगी हो, कि जिसको स्वरूप देने में इसका भी हाथ था।” श्री विल्सन ही फिर आगे कहते हैं, कि “भारतवर्ष की जनसंख्या के जैन निःसंदेह एक महान् और जाहोजलाली एवं सत्ता की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भाग है।” श्री डब्ल्यू.एस. लिले के अनुसार “बौद्ध धर्म अपनी जन्मभूमि में जैनधर्म के रूप में टिका हुआ है। यह निश्चित बात है, कि जब भारतवर्ष से बुद्ध धर्म अदृश्य हो गया, जैनधर्म दिखलाई पड़ा था। डॉ. हॉपकिंस जैसे सुप्रसिद्ध विद्वान् भी जैन धर्म के सन्दर्भ में भ्रमित थे, जिसे बाद में स्वयं उन्होंने स्वीकार किया था। डॉ. होपकिंस के अनुसार, “भारत के सब महान् धर्मों में से नात्त पुत्त का धर्म ही न्यूनतम रोचक है और प्रत्यक्षतः जीवित रहने का वह न्यूनतम अधिकारी है। जो धर्म मुख्य सिद्धांत रूप से ईश्वर को नहीं मानता, मनुष्य पूजा करना, और कीड़ी-मकोड़ी की रक्षा-पोषण करना सिखाता है, उसको वस्तुतः जीवित रहने का ही न तो अधिकार है और न उसका विचार-तत्त्वज्ञान के इतिहास में ही एक दर्शन रूप से कोई अधिक प्रभाव ही कभी रहा है। "342 अपने ऐसे बेबुनियाद निष्कर्षों को भ्रम-निवारण किए जाने पर डॉ. होपकिंस ने श्री विजयेन्द्रसूरि जी को एक पत्र में लिखा था, कि “मुझे अब एकदम पता लग गया है, कि जैनों का व्यवहारी धर्म प्रत्येक रीति से प्रशंसा पात्र है। तब से मैं निश्चय ही दुःखी हूँ, कि लोगों के चरित्र और नैतिकता पर इस धर्म ने जो आश्चर्य जनक प्रभाव डाला उसकी ओर ध्यान दिए बिना ही ईश्वर को नहीं मानने, केवल मनुष्य पूजा करने और कीड़ी-मकोड़ी की रक्षा पोषण करने वाले के रूप में जैन धर्म की मैंने निंदा की।
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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