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80 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जैन धर्म के उपदेश थे, हिन्दुत्व के नहीं।"
___ इस प्रकार स्पष्ट है, कि उपनिषद् साहित्य भगवान पार्श्व के पश्चात् निर्मित हुआ है। भगवान पार्श्वनाथ ने यज्ञ आदि का अत्यधिक विरोध किया था। आध्यात्मिक साधना पर बल दिया था, जिसका प्रभाव वैदिक ऋषियों पर भी पड़ा और उन्होंने उपनिषदों में यज्ञों का विरोध किया। उन्होंने स्पष्ट कहा - 'यज्ञ विनाशी और दुर्बल साधन है, जो मूढ़ है, वे इनको श्रेय मानते हैं, वे बार-बार जरा और मृत्यु को प्राप्त होते रहते हैं। 344 भगवान पार्श्वनाथ के आत्म-विज्ञान का वैदिक संस्कृति पर इतनः प्रभाव पड़ा, कि उस समय यज्ञ याग तथा शुष्क वैदिक क्रिया-काण्ड के प्रति विरोध के स्वर प्रखर होने लगे। तात्कालिक वेदानुयायी क्षत्रिय कुमार जैसे जनक, श्वेतकेतु, उद्दालक, जाबाली, आरुणि, याज्ञवल्क्य आदि विज्ञजन ऋषियों तक को आत्म-विद्या का उपदेश देते थे।
वैदिक परम्परा की भाँति ही भगवान बुद्ध के जीवन दर्शन पर तीर्थंकर पार्श्वनाथ की परम्परा की गहरी छाप पड़ी थी। स्वयं बुद्ध अपने प्रमुख शिष्य सारिपुत्र से कहते हैं, कि - "सारिपुत्र बोधि प्राप्ति से पूर्व में दाढ़ी-मूछों का लुंचन करता था। मैं खड़ा रहकर तपस्या करता था। उकडू बैठकर तपस्या करता था। मैं नंगा रहता था। लौकिक आचारों का पालन नहीं करता था। हथेली पर भिक्षा लेकर खाता था। बैठे हुए स्थान पर आकर दिए हुए अन्न को, अपने लिए तैयार किए हुए अन्न को और निमंत्रण को भी स्वीकार नहीं करता था।"
यह समस्त आचार जैन श्रमणों का है। इस आचार में कुछ स्थविर कल्पिक हैं और कुछ जिनकल्पिक है। दोनों ही प्रकार के आचारों का उनके जीवन में सम्मिश्रण हैं। संभव है प्रारंभ में गौतम बुद्ध पार्श्व की परम्परा में दीक्षित हुए हों। श्रीमति राइस डेविड्स का भी ऐसा ही मत है, "बुद्ध पहले गुरु की खोज में वैशाली पहुँचे, वहाँ आलार और उद्रक से उनकी भेंट हुए, फिर बाद में उन्होंने जैन धर्म की तप-विधि का अभ्यास किया।
चूँकि बुद्ध और महावीर समकालीन थे, अतः जिस जैन संस्कृति से बुद्ध प्रभावित हुए, वह महावीर की परम्परा तो हो नहीं सकती, अतः यह सिद्ध होता है, कि वे उनसे पूर्व हुए तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी की परम्परा से ही प्रभावित हुए।
इस प्रकार भगवान पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता वैदिक, बौद्ध अन्य दार्शनिक विद्वानों के मतों से तो प्रमाणित होती ही ., जैन आगमों में भी महावीर के समय तक भी पार्श्वनाथ जी के अनुयायियों की विद्यम नता के प्रमाण मिलते हैं।
उत्तराध्ययन के तेबीसवें अध्याय में कशी श्रमण और गौतम का संवाद है। वह संवाद यह प्रमाणित करता है, कि महावीर से पूर्व निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय में चार याम को मानने वाला एक सम्प्रदाय था, जिसके प्रधान प्रणेता भगवान पार्श्वनाथ थे।