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जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता * 77
की रानी से श्री कृष्ण का जन्म हुआ।
इस प्रकार वैदिक परम्परा के मान्य ग्रन्थ हरिवंश में दिये गए यादववंश के वर्णन से भी यह सिद्ध होता है, कि श्री कृष्ण और श्री अरिष्टनेमि चचेरे भाई थे और दोनों के परदादा युधाजित और देवमीढुष सहोदर थे।
दोनों परम्पराओं में अन्तर इतना ही है, कि जैन परम्परा के अनुसार अरिष्टनेमि के पिता समुद्रविजय को वसुदेव का बड़ा सहोदर माना गया है, जबकि हरिवंश पुराण में चित्रक और वसुदेव को चचेरे भाई माना है। संभव है, कि चित्रक (श्रीमद् भागवत् के अनुसार चित्ररथ) समुद्रविजय का ही अपरनाम रहा हो।
दोनों परम्पराओं में नामों की असमानता लम्बे अतीत में हुए युद्धों, दुष्काल आदि अनेक कारणे से हो सकती है। लेकिन दोनों परम्पराओं में श्री अरिष्टनेमि और श्री कृष्ण को चचेरा भाई मानने में कोई दो राय नहीं है।
तीर्थंकर अरिष्टनेमि का प्रभाव भारत के बाहर विदेशों में भी पहँचा है। कर्नल टॉड के शब्दों में, “मुझे ऐसा प्रतीत होता है, कि प्राचीन काल में चार बुद्ध या मेधावी महापुरुष हुए हैं। उनमें पहले आदिनाथ और दूसरे नेमिनाथ थे। नेमिनाथ ही स्केन्डोनेविया निवासियों के प्रथम ‘ओडियन' और चीनियों के प्रथम 'फो' देवता
थे।"
प्रसिद्ध इतिहासज्ञ डॉ. राय चौधरी ने अपने वैष्णव धर्म के प्राचीन इतिहास में अरिष्टनेमि को कृष्ण का चचेरा भाई लिखा है।
जीवन परिचय : शौर्यपुर के राजा समुद्रविजय काश्यप गौत्री हरिवंश शिरोमणि थे। उनकी रानी शिवादेवी ने एक बार कार्तिक शुक्ला षष्ठी को उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में रात्रि के पिछले प्रहर में चौदह स्वप्न देखे और मुख में प्रवेश करता हुआ हाथी देखा। उसी समय तीर्थंकर अरिष्टनेमि के जीव ने माता के गर्भ में प्रवेश किया और देवों ने प्रथम गर्भ कल्याणक की पूजा की। फिर श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन चित्रा नक्षत्र में ब्रह्मयोग के समय तीन ज्ञान के धारक प्रभु का जन्म हुआ। तब देवों ने सुमेरु पर्वत पर ईशान दिशा में पाण्डुक शिला पर प्रभु का जन्माभिषेक करके उनका नेमि नामकरण किया।
श्री नेमिनाथ जी के देह की कांति श्यामवर्ण की थी, देह की ऊँचाई दस धनुष की थी। उनकी आयु एक हजार वर्ष थी। इक्कीसवें तीर्थंकर नमिनाथ तथा नेमिनाथ के निर्वाण का अन्तर काल पाँच लाख वर्ष का था। नेमिनाथ भगवान की दीक्षा पर्याय सात सौ वर्ष की थी।"
कुमारकाल के तीनसौ वर्ष पूर्ण हुए तब एक बार नेमिनाथ ने आयुधशाला में जाकर शार्ङ्ग नामक दिव्य धनुष चढ़ा दिया और कृष्ण का पाञ्चजन्य शंख फूंक दिया। तब चक्रवर्ती श्री कृष्ण चिन्तित हुए। उनके युवा होने के संकेत को पाकर उन्होंने राजा