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जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता * 71
कनक निर्मिता प्रतिकृति स्वरूपा पुतली में डाला गया मनोज्ञ अशन पानादि का पुद्गल परिणमन इतना अमनोज्ञ नितान्त असह्य, अशुभ व दुर्गन्ध पूर्ण बन गया, तो वीर्य एवं रज से निर्मित श्रेष्म, लार, मल, मूत्र, मज्जा, शोणित आदि अशुचियों के भण्डार, नाड़ियों के जाल से आबद्ध, आन्त्र जाल के कोष्ठागार, सभी प्रकार के रोगों के घर, अस्थि, चर्म और मांसमय इस अशुचि के भण्डार सड़नधर्मा, पतनधर्मा, नश्वर औदारिक शरीर में प्रतिदिन डाले गए अशन-पानादि आहार का पुद्गल परिणमन कितना घोर दुर्गन्ध पूर्ण होगा, यह तो साधारण से साधारण बुद्धिवाला व्यक्ति भी समझ सकता है।
अतः इस शाश्वत सत्य को ध्यान रखते हुए आप सांसारिक काम-भोगों में अनुराग, आसक्ति, तृष्णा, लोलुपता और मुग्धता मत रखो और इस मनुष्य भव को व्यर्थ मत गँवाओ।
मल्ली कुमारी ने उन सभी को पूर्व भव की याद दिलाते हुए कहा, कि - हे देवानुप्रियों! इस मानव भव से पूर्व के तीसरे भव में हम सातों समवयस्क बाल सखा थे। हमने बाल-क्रीड़ा, अध्ययन, राज्यभोग, सांसारिक सुखोपभोग एक साथ किए। फिर एक साथ ही श्रमण दीक्षा लेकर तप किया था। हम सबने विशुद्ध भाव से एक समान दुप्कर तपश्चरण किया। तुम छहों साथी मुनि यदि दो उपवास करते, तो मैं छल से बहाना करके तीन उपवास कर लेता। इस प्रकार उत्कृष्ट तपस्या से मैंने तीर्थंकर नाम गौत्रकर्म का उपार्जन तो किया, लेकिन छल और झूठ से अधिक तपस्या करने के कारण मैंने स्त्री नामकर्म का भी बन्ध कर लिया। अन्त में हम सातों ने साथ-साथ ही संलेखनापूर्वक पादपोपगमन संथारा किया और समाधिपूर्वक आयुपूर्ण कर हम सातों ही जयन्त नामक अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र हुए और बत्तीस सागर तक दैविक सुखों को भोगकर हमने इस वर्तमान रूप में जन्म धारण किया है। देव भव में हम सातों ने प्रतिज्ञा की थी, कि हम यहाँ से च्यवन के पश्चात् एक दूसरे को प्रतिबोधित करेंगे। आप लोग अपने उस देव भव को स्मरण करें।”
राजकुमारी मल्ली के द्वारा अपने पूर्व भव सुनकर सभी छह राजाओं को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। कुमारी को यह ज्ञात होते ही उसने छहों भवनों के द्वार खुलवा दिए और पूर्व के सातों मित्र परस्पर मिले। तब भगवती मल्ली ने कहा, कि मैं तो भवभ्रमण से मुक्त होने के लिए प्रव्रजित होऊँगी। आप लोगों का क्या विचार है? तब उन सबने भी भगवती मल्ली के साथ प्रव्रजित होने का निर्णय लिया।
___एक वर्ष पश्चात् वर्षीदान देकर संपूर्ण विधि से भगवती मल्ली ने तीन सौ स्त्रियों व तीन सौ पुरुषों के साथ पौष शुक्ला एकादशी को दीक्षा अंगीकार की।
केवल ज्ञान : श्री ऋषभदेव जी से महावीर भगवान तक की इस चौबीसी के अन्य तीर्थंकरों की अपेक्षा प्रभु मल्लिनाथ जी की यह विशेषता रही, कि उनका