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जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता * 65
संख्यात् तिर्यंचों से पूजित थे। उनके धर्मशासन में ही पुरुषसिंह नामक वासुदेव और सुदर्शन नाम के बलभद्र हुए थे।
निर्वाण : धर्म-ध्वज से शोभित प्रभु धर्मनाथजी ने उपर्युक्त बारह प्रकार की सभाओं को लाखों वर्षों तक पूरे आर्यावर्त में उद्बोधित किया। जब आयु का 1 माह शेष रहा तब वे सम्मेद शिखर चले गये वहाँ एक माह का योग निरोध करके आठ सौ नौ मुनियों के साथ ध्यानारुढ़ हुए। ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्थी के दिन रात्रि के अन्त भाग में शुक्लध्यान को पूर्ण करके पुष्य नक्षत्र में मोक्षगामी हुए।" 16. शान्तिनाथ जी :
भगवान शान्तिनाथ जी सोलहवें तीर्थंकर हैं। वे पूर्वभव में जब मेघरथ थे तब कबूतर की रक्षा की। यह घटना वसुदेव हिण्डी त्रिशष्टि शलाकापुरुष चारित्र तथा उत्तर पुराण आदि सभी में मिलती है। वैदिक ग्रन्थ महाभारत में भी शिवि राजा के उपाख्यान के रूप में इसका विवेचन मिलता है। बौद्ध वाङमय में भी ‘जीमूतवाहन' के रूप में यह घटना चित्रित की गई है। प्रस्तुत घटना हमें बताती है, कि जैन परम्परा केवल निवृत्ति रूप अहिंसा में ही नहीं, वरन् मरते हुए की रक्षा के रुप में प्रवृत्ति रूप भी अहिंसा धर्म है।
कुरुजाङ्गल देश के मध्य सुन्दर हस्तिनापुर नगरी थी। वहाँ के देदीप्यमान राजा काश्यपगौत्री विश्वसेन थे। उनकी प्रियरानी ऐरादेवी थी। एक बार भादों बदी सप्तमी के दिन भरणी नक्षत्र में रात्रि के चतुर्थ भाग में महारानी ऐरादेवी ने चौदह स्वप्न देखे तथा मुख में प्रवेश करता हुआ हाथी देखा। उसी समय मेघरथ का जीव तीर्थंकर रूप में माता के गर्भ में अवतीर्ण हुआ। तभी इन्द्रों ने प्रथम कल्याणक की पूजा की। नवें माह में महारानी ऐरादेवी ने ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी के दिन याम्ययोग में प्रातःकाल के समय प्रभु को जन्म दिया। तब देवों ने सुमेरु पर्वत पर बालक का जन्माभिषेक करके शान्तिनाथजी नामकरण करके पुनः माता के पास सुला दिया।
भगवान शान्तिनाथ जी की देह की कांति स्वर्ण के समान, आयु एक लाख बरस की काया चालीस धनुष की और व्रत पर्याय पच्चीस हजार वर्ष की थी। तीर्थंकर धर्मनाथ जी और शांतिनाथ जी के निर्वाणकाल का अंतर पौन पल्योपम कम तीन सागरोपम था।
पच्चीस हजार वर्ष की आयु में कुमार शान्ति को महाराज विश्वसेन ने राज्य सौंपकर राजतिलक किया। पच्चीस हजार वर्ष तक शासन करने के पश्चात् वे चक्रवर्ती बने। चक्रवर्ती महाराज शान्तिनाथ जी के तेज को प्रकट करने वाले साम्राज्य के साधन चक्र आदि चौदह रत्न और नौ निधियाँ प्रकट हुईं। उन चौदह रत्नों में से चक्र, छत्र, तलवार और दण्ड आयुधशाला में प्रकट हुए, काकिणी, चर्म और चूडामणि श्रीगृह में प्रकट हुए थे, पुरोहित, स्थपति, सेनापति और गृहपति हस्तिनापुर में प्राप्त हुए थे और