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जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता 63
महाराज सिहंसेन राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम सुयशा था । कार्तिक कृष्णा प्रतिपदा के दिन प्रातःकाल रेवती नक्षत्र में महारानी सुयशा ने चौदह स्वप्न देखे और उसी समय एक हाथी को मुख में प्रवेश करते देखा। उसी समय प्रभु ने माता के गर्भ में प्रवेश किया। नव माह व्यतीत होने पर ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशी के दिन पुष्प योग में प्रभु का जन्म हुआ। देवों ने जन्माभिषेक के पश्चात बालक का नाम अनन्तजीत रखा । 761
भगवान अनन्तनाथजी की देह की कान्ति सुवर्ण जैसी थी, आयु तीस लाख वर्ष की थी तथा काया पचास धनुष प्रमाण थी । उनकी व्रत पर्याय साढ़े सात लाख वर्ष थी। भगवान विमलनाथजी और अनन्तनाथजी के निर्वाण का अन्तरकाल नौ सागरोपम का था। 202
कुमार अनन्तजीत का सात लाख पचास हजार वर्ष की आयु में राज्याभिषेक हुआ। राज्य करते हुए पन्द्रहलाख वर्ष बीत जाने पर एक दिन उल्कापात देखकर उन्हें वैराग्य उत्पन्न हुआ। तब उन्होंने अपने पुत्र अनन्त विजय को राज्य सौंपकर दीक्षा अंगीकार की । देवों द्वारा तृतीय दीक्षा कल्याणक की पूजा के पश्चात अनन्तनाथ जी सागरदत्त नामक पालकी में बैठकर सहेतुक वन में गए। वहाँ बेला का नियम लेकर ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशी के दिन सायंकाल के समय प्रभु एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हुए। उसी समय उन्हें मनः पर्यय ज्ञान हो गया।
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केवल ज्ञान : भगवान अनन्तनाथजी दीक्षित होने के पश्चात् दो वर्ष तक छद्मस्थ अवस्था में विचरण करते रहे। एक दिन वे अपने दीक्षा वन में पहुँचे । वहाँ उन्होंने अश्वत्थ-पीपल के वृक्ष के नीचे चैत्र कृष्णा अमावस्या के दिन सायंकाल में रेवती नक्षत्र में ध्यानारूढ़ होकर केवल ज्ञान प्राप्त किया। उसी समय देवों ने चतुर्थ कल्याणक की पूजा की । "
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धर्म-परिवार : तीर्थंकर अनन्तनाथजी के जय आदि पचास गणधर थे। उनके एक हजार पूर्वधारी थे, तीन हजार दौ सौ वादी थे, उनतालीस हजार पाँच सौ शिक्षक थे, चार हजार तीन सौ अवधीज्ञानी थे, पाँच हजार केवलज्ञानी थे, आठ हजार विक्रिया ऋद्धिधारक थे, पाँच हजार मनः पर्यय ज्ञानी थे । इस प्रकार प्रभु के धर्म परिवार में कुल छियासठ हजार मुनि थे । सर्वश्री आदि एक लाख आठ हजार आर्यिकाएँ उनकी आज्ञानुवर्तिनी थीं। दो लाख श्रावक तथा चार लाख श्राविकाएँ उनके अनुयायी थे । वे असंख्यात देव - देवियों तथा संख्यात तिर्यंचों द्वारा सेवित थे । इस प्रकार वे बारह सभाओं के भव्य समूह के अग्रणी थे।
निर्वाण : भगवान अनन्तनाथजी ने लाखों वर्षों तक भव्य जीवों को धर्म में प्रेरित किया। जब आयु का एक माह शेष रहा तब सम्मेदशिखर पर जाकर उन्होंने योग-निरोध किया। छह हजार एक सौ मुनियों के साथ प्रतिमा योग धारण कर लिया ।