________________
जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता*57
वन में नागवृक्ष के नीचे बेला का नियम लेकर स्थित हुए। वहीं फाल्गुन कृष्ण सप्तमी को सायंकाल में अनुराधा नक्षत्र में परमाभाव सम्यग्दर्शन, अन्तिम यथाख्यात चारित्र, क्षायिक ज्ञान को प्राप्त करके सयोगी केवली जिनेन्द्र हो गए। उस समय वे सर्वज्ञ, समस्त लोक के स्वामी सबका हित करने वाले, इन्द्रों द्वारा वन्दनीय, सर्वदर्शी, सब पदार्थों का उपदेश करने वाले थे। चौंतीस अतिशयों और आठ प्रतिहार्यों द्वारा उनका तीर्थंकर नामकर्म का वैभव प्रकट हो रहा था। समस्त दिशाओं को प्रकाशित करती हुई उनकी कान्ति ऐसी लगती थी मानो केवलज्ञान की प्रभा ही प्रकाशमान हो।”
धर्म परिवार : भगवान चन्द्रप्रभु जी 12 सभाओं से सेवित थे। उनके 93 गणधर थे, दो हजार पूर्वधारी थे, आठ हजार अवधिज्ञानी थे, दो लाख चार सौ शिक्षक थे, दस हजार केवलज्ञानी थे, चौदह हजार विक्रिया ऋद्धि धारक मुनि थे, आठ हजार मनः पर्ययज्ञानी थे तथा सात हजार छ: सौ वादी थे। इस प्रकार सब मुनियों की संख्या ढाई लाख थी। वरुणा आदि तीन लाख अस्सी हजार आर्यिकाएँ उनकी अनुगामिनी थीं, तीन लाख श्रावक तथा पाँच लाख श्राविकाएँ उनके अनुयायी थे। वे असंख्यात देव-देवियों से स्तुत्य थे और संख्यात तिर्यंच उनकी सेवा करते थे।
निर्वाण : चन्द्रप्रभु जी ने समस्त आर्यावर्त में विहार कर धर्म-प्रवर्तन किया। अन्त में सम्मेदशिखर पर जाकर विहार बन्द कर दिया। वहाँ धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति पूर्वक उन्होंने एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण किया और एक माह तक सिद्धशिला पर आरुढ़ रहे । फाल्गुन शुक्ला सप्तमी के दिन ज्येष्ठा नक्षत्र में सायंकाल के समय योग-निरोध कर चौदहवें गुणस्थान को प्राप्त कर सिद्ध-बुद्ध मुक्त हो गए। ऐसे अष्ट कर्मों का क्षय करके चन्द्रप्रभ स्वामी मोक्ष-लक्ष्मी से संपन्न हो सबके वन्दनीय हो गए। 9. सुविधिनाथ जी :
नवमें तीर्थंकर सुविधिनाथ जी का नाम पुष्पदन्त भी था। जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के काकन्दी नगर में इक्ष्वाकु वंशीय काश्यपगौत्री क्षत्रिय राजा सुग्रीव का राज्य था। उनकी पटरानी रामादेवी ने फाल्गुन कृष्ण नवमी के दिन प्रभातकाल में मूल नक्षत्र में चौदह महास्वप्न देखे। तभी प्रभु सुविधिनाथ जी माता के गर्भ में आए। यथासमय मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदा के दिन जैत्रयोग में प्रभु का जन्म हुआ। कुन्दपुष्प की कान्ति से सुशोभित होने से उनका नाम पुष्पदन्त रखा गया।"
नवमें तीर्थंकर भगवान पुष्पदन्त जी की कांति श्वेत थी, आयु दो लाख पूर्व थी, काया एक सौ धनुष और व्रत पर्याय अठाईस पूर्वांग (तेइस करोड़ बावन लाख वर्ष) कम एक लाख पूर्व की थी। चंद्रप्रभु जी तथा पुष्पदन्तजी के निर्वाणकाल का अंतर नब्बे कोटि सागरोपम का था।
पुष्पदन्तजी ने पचास हजार पूर्व की आयु तक कुमार अवस्था के सुख भोगे।