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496 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
गईं।
जहाँ धर्म के नाम पर ऐसे अत्याचार होते हैं, धर्म के नाम पर सामाजिक ऊँचनीच के विभिन्न स्तर कायम किए जाते हों, धर्म के नाम पर भगवान के प्रांगण में न जाने, उन्हें छूने न छूने की प्ररूपणा की जाती हो, वह धर्म निश्चय ही एक प्रकार की अफीम है। उसके सेवन से नशा ही आता है। आत्मदशा की कोई पहचान नहीं होती। धर्म के नाम पर पनपने वाली इस विकृति को देखकर ही मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा। लेकिन सच्चा धर्म नशा नहीं है, वरन् वह तो नशे को दूर कर आत्म-दशा को शुद्ध और निर्मल बनाने वाला है, सुषुप्त चेतना को जागृत करने वाला है, ज्ञान और आचरण के द्वैत को मिटाने वाला है।
धर्म के दो आधार हैं- 1. चिरन्तन और 2. सामयिक। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। चिरन्तन आधार आत्म-गुणों से सम्बन्धित है और सामयिक आधार सम-सामयिक परिस्थितियों का परिणाम हैं। देश और काल के अनुसार यह परिवर्तित होता रहता है। ग्राम धर्म, नगर धर्म, राष्ट्र धर्म, संघ धर्म सामयिक आधार पर अपना रूप खड़ा करते हैं और चिरन्तन आधार से प्रेरणा व शक्ति लेकर जीवन तथा समाज को संतुलित, संयमित करते हैं। दोनों आधारों को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार यथायोग्य स्थान और महत्त्व देता है।
आधुनिकता और वैज्ञानिक युग धर्म के लिए अनुकूल नहीं है या वे धर्म के विरोधी हैं, ऐसी विचारधारा निरा भ्रम उत्पन्न करती है। वास्तव में आधुनिकता ही धर्म की कसौटी है। धर्म अन्धविश्वास या अवसरवादिता नहीं है। कई लोक सम्मत जीवन आदर्श मिलकर ही धर्म का रूप खड़ा करते हैं। उसमें जो अवांछनीय रुढ़ि तत्त्व प्रवेश कर जाते हैं, आधुनिकता उनका विरोध करती है। आधुनिकता का धर्म के केन्द्रीय जीवन तत्त्वों से कोई विरोध नहीं है। आज के इस तेजरफ्तार युग में सबसे बड़ी आवश्यकता इस बात की ही है, धर्म के केन्द्रिय जीवन तत्त्व यथा इन्द्रिय निग्रह, मंत्री, करुणा, प्रेम, सेवा, सहकार, स्वावलम्बन, तप, संयम, परोपकार आदि सुरक्षित रहें।
__ वर्तमान युग बौद्धिक विश्लेषण और तर्क जाल का युग है। वह श्रद्धा और आस्था के आधार पर टिके हुए शाश्वत आदर्शों को महत्त्व न देकर उन मूल्यों तथा तथ्यों को महत्त्व देता है, जो प्रयोग और परीक्षण की कसौटी पर खरे उतरते हैं। वह अतीत जीवी विश्वासों और अनागत आदर्श कल्पनाओं में न विचर कर, वर्तमान जीवन की कठोरताओं और विद्रूपताओं से संघर्ष करने में अपने पुरुषार्थ का जौहर दिखाता है। वह इन्द्रियों और मन द्वारा प्रत्यक्षीकृत सत्य तथा भौतिक जगत् की स्थिति व अवगाहना में विश्वास करता है। त्रिकालवाही सत्यनिरुपण, परलोक सम्बन्धी रहस्यात्मकता व ईश्वरवादिता को नकारता है। विज्ञान का चिन्तन ईश्वर जैसी किसी ऐसी अलौकिक शक्ति में विश्वास नहीं करता जो व्यक्ति के सुख-दुःख की नियामक