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488 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
सूत्र हैं- दयतां, दीयतां, दाम्यताम्। इसमें समग्र भारतीय संस्कृति का सार आ गया है। जहाँ दया, दान और दमन (मन, इन्द्रियों का निग्रह) है, वहीं भारतीय संस्कृति है।
भारत के जन मन में दया, दान और दमन की ऊर्जा भरी हुई है। प्राणिमात्र के प्रति दया करो, मुक्त भाव से दान दो और अपने मन के विकल्पों का दमन करो, यही भारतीय संस्कृति का स्वर है। वेदों ने इसी को गाया है, पिटकों में इसी को ध्याया है, और आगमों में भी सर्वत्र इसी की छाया है।
अपने मूलरूप में भारतीय संस्कृति एक होकर भी धारा रूप में अनेक है। वेद, बुद्ध और जिन रूप से वह तीन धाराओं में प्रवाहित है। वेद दान का, बुद्ध दया का,
और जिन दमन का प्रतीक है। वेद मार्ग से प्रवाहित धारा वैदिक संस्कृति, पिटक से बहने वाली धारा बौद्ध संस्कृति और आगम मार्ग पर अग्रसर धारा जैन संस्कृति है। मनोविकारों को दमित करने वाला विजेता ही जिन होता है और जिन की संस्कृति ही वस्तुतः जैन संस्कृति है।
भारतीय संस्कृति दो धाराओं में निहित है- ब्राह्मण संस्कृति विस्तारवादी, प्रवृत्तिवादी है। श्रमण संयम का साधक है, निवृत्तिवादी है। भारतीय संस्कृति में मानव के चार पुरुषार्थ स्वीकार किए गए हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । ब्राह्मण संस्कृति में प्रथम तीन पुरुषार्थों पर अधिक बल दिया गया है, जबकि श्रमण संस्कृति में अन्तिम पुरुषार्थ मोक्ष को ही परम श्रेय माना गया है।
जैन संस्कृति किसी वर्ग, सम्प्रदाय या व्यक्ति विशेष की संस्कृति नहीं है। प्रत्युत मानव जाति के चिन्तन से विकसित आध्यात्मिकता का प्रवाह है। इसकी प्रत्येक प्रवृत्ति में अनासक्ति, अहिंसा और अपरिग्रह का आदर्श दृष्टिगत होता है। जड़ता , प्रमाद, कदाग्रह, अंधविश्वास और आडम्बर का जैन संस्कृति में कोई स्थान नहीं है। व्यक्ति को स्वविकास करने और पराश्रयता से मुक्त करने के लिए आत्मविश्वास पैदा करने का श्रेय जैन संस्कृति को ही है।
जैन संस्कृति में निहित उद्यत भावना का प्रतिनिधित्व तो इसका नाम ही करता है। जैन तीर्थंकरों ने अपने नाम पर धर्म का नामकरण नहीं किया। जैन शब्द बाद का है। इसका प्राचीन नाम श्रमण, अहँत और निग्रंथ धर्म रहा है। श्रमण शब्द समभाव, श्रमशीलता एवं वृत्तियों के उपशमन का परिचायक है। अहँत् शब्द भी गुण वाचक है, जिसने पूर्ण योग्यता, पूर्णता प्राप्त कर ली है, वह है- अहँत् । जो सब प्रकार की ग्रन्थियों से मुक्त हो गया है, वह निर्ग्रन्थ है। जिन्होंने राग द्वेष रूप-शत्रु अर्थात् आन्तरिक विकारों पर विजय प्राप्त कर ली है, वे जिन कहे गये हैं और उनके अनुयायी जैन। इस प्रकार जैन धर्म किसी विशेष व्यक्ति सम्प्रदाय या जाति का परिचायक न होकर उदात्त जीवन आदर्शों और सार्वजनीन भावों का प्रतीक है, जिनमें संसार के सभी प्राणियों के प्रति आत्मोद्धारक मैत्री भाव निहित है।