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जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता * 47
समवायांग सूत्र में लिखा है- 'चौतीसं बुद्धाइसेसा' और 'पणतीसं सच्चवयणाइसेसा पण्णत्ता' ।” दिगम्बर परम्परा में 34 अतिशयों का वर्णन नंदीश्वर भक्ति में किया गया
है।
प्रथम देशना और तीर्थ स्थापना : केवलज्ञानी और वीतरागी बन जाने के पश्चात् फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिन प्रथम देशना देकर चतुर्विध तीर्थों की स्थापना करके प्रथम तीर्थंकर कहलाए। प्रश्न व्याकरण सूत्र में कहा गया है, कि समस्त जगत के जीवों की रक्षा व दया के लिए भगवान ने प्रवचन दिया, अतः जैन शास्त्रों तथा वैदिक पुराणों में भी भगवान ऋषभदेव को दशविध धर्म का प्रवर्तक कहा गया है।
भगवान ने श्रुत एवं चारित्र धर्म का निरुपण करते हुए रात्रि भोजन, विरमण सहित अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पंचमहाव्रत धर्म का उपदेश दिया। प्रभु ने समझाया, कि मानव जीवन का लक्ष्य भोग नहीं योग है, राग नहीं विराग है, वासना नहीं साधना है। वृत्तियों का हठात् दमन नहीं अपितु ज्ञान पूर्वक शमन करना चाहिये।
भरत का विवेक : सम्राट भरत को जिस समय प्रभु के केवलज्ञान की सूचना मिली, उसी समय एक दूत ने आकर आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न होने की शुभ सूचना भी दी। उसी समय उन्हें पुत्र-रत्न लाभ की तीसरी शुभ सूचना भी प्राप्त हुई।
तीन शुभ सूचनाएँ एक साथ पाकर भी महाराज भरत ने क्षणभर में ही अपने विवेक से निर्णय लिया, कि - चक्र रत्न और पुत्र रत्न की प्राप्ति तो अर्थ एवं काम का फल है, लेकिन प्रभु का केवल ज्ञान धर्म का फल है। अतः भरत सर्व प्रथम प्रभु की वन्दना करने गए, जो आत्मा के लिए श्रेयस्कर था।
मरुदेवी माता का मोक्षः माता मरुदेवी अपने पुत्र ऋषभदेव को प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् एक हजार वर्ष बीत जाने पर एक बार भी देख नहीं पायी थी, अतः वह अपने प्रिय पुत्र के विरह में व्याकुल हो रोती रहती थी। ऋषभदेव प्रभु के केवलज्ञान प्राप्ति की सूचना मिलते ही भरत महाराज मरुदेवी माता को लेकर प्रभु के पास पुरिमताल नगर के बाहर शकटमुख उद्यान में पहुंचे।
समवसरण के निकट पहुँच कर माता मरुदेवी ने गजारुढ स्थिति में ही त्रिलोकवन्द्य भगवान ऋषभदेव की देवेन्द्रकृत महिमा देखी तो वे भगवान ऋषभदेव को उलाहना देने लगी, कि मैं तो समझती थी, कि मेरा पुत्र कष्टों में होगा, लेकिन तुम तो अनिर्वचनीय आनन्द सागर में झूल रहे हो। एक बार भी माँ की सुध नहीं ली और अब मैं आयी हूँ, तब भी एक शब्द भी नहीं बोलते हो। तब प्रभु ने उन्हें प्रतिबोध देते हुए समझाया और वे सरल मना, सरलकर्मा माता मरुदेवी आर्तध्यान से शुक्ल ध्यान में आरुढ़ हुई और कुछ ही क्षणों में ज्ञान, दर्शन, अन्तराय और मोह के आवरण को दूर करके केवल ज्ञान व केवल दर्शन की धारक बन गई। आयु का अवसान काल