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484 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
संस्कृति में धर्म, दर्शन, कला, विज्ञान आदि सभी तत्वों का पूर्ण सामंजस्य होता है।
__ जैन धर्म-दर्शन ने मानव संस्कृति को विकसित किया। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी इस मानव संस्कृति के सूत्रधार बने। उनके पूर्व आदि सभ्यता अत्यन्त सरल और सहज थी। किसी प्रकार की कौटुम्बिक व्यवस्था न होने से कोई उत्तरदायित्व नहीं था। युगलियों का जीवन था, भोगमूलक जीवन व्यवस्था थी, कल्पवृक्षों के आधार पर जीवन चलता था। प्रकृति और मानवीय तत्वों का यह ऐसे संमिश्रण का युग था, जहाँ धर्म साधना, पाप-पुण्य, ऊँच-नीच आदि द्वन्द्वात्मक प्रवृत्तियों का अस्तित्व नहीं था। कर्म और कर्त्तव्य की भावना सुषुप्त थी। लोग न खेती करते थे, न व्यवसाय।
कालचक्र के प्रभाव से आगे चलकर प्रकृति हासोन्मुखी होने लगी। जैसे-जैसे प्राकृतिक साधन कम होने लगे, लोगों में कल्पवृक्षों को लेकर छीना-झपटी होने लगी। इससे असुरक्षा की स्थिति उत्पन्न हो गयी, फलतः सुरक्षा एवं सहयोग का आह्वान किया गया। इससे सामूहिक व्यवस्था प्रतिफलित हुई, जिसे जैन साहित्य में 'कुल' नाम दिया गया और जिन्होंने इस व्यवस्था का श्री गणेश किया, उन्हें कुलकर कहा गया। ऐसे 14 कुलकर हुए। प्रत्येक कुलकर ने व्यवस्था को गति प्रदान की। इनके समय तक विभाजन की व्यवस्था के साथ-साथ सामान्य दण्ड-व्यवस्था का भी प्रारम्भ हो चुका था।
भगवान ऋषभदेव के जीवन क्रम ने मानव सभ्यता एवं संस्कृति को एक नया मोड़ दिया। उन्होंने एक आदर्श राजा के रूप में भोगमूलक संस्कृति के स्थान पर कर्ममूलक संस्कृति की प्रतिष्ठा की। पेड़-पौधों पर निर्भर रहने वाले लोगों को खेती करना सिखाया। आत्म शक्ति से अनभिज्ञ रहने वाले लोगों को अक्षर, लिपि, कला
और विज्ञान का ज्ञान देकर पुरुषार्थी बनाया। दैववाद के स्थान पर पुरुषार्थवाद की मान्यता को सम्पुष्ट किया। अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध लड़ने के लिए हाथों में बल दिया। जड़ संस्कृति को कर्म की गति दी, चेतनाशून्य जीवन को सामाजिकता का बोध और सामूहिकता का स्वर दिया। पारिवारिक जीवन को सशक्त बनाया। सर्वप्रथम विवाह प्रथा का समारम्भ किया। कला कौशल और उद्योग-धन्धों की व्यवस्था कर निष्क्रिय जीवन-यापन की प्रणाली को सक्रिय और सक्षम बनाया।
ऋषभदेव जी ने ही सामाजिक व्यवस्था का ज्ञान लोगों को दिया। जिन कामधन्धों के बिना उस समय वैयक्तिक और सामाजिक जीवन शक्य नहीं था और आज भी जो शक्य नहीं हो सकता, वे सारे उन्होंने सिखाए। उस वक्त की परिस्थिति व समझ के अनुसार ही उन्होंने लोगों को खेती द्वारा अनाज पैदा करने, अनाज पकाने, उसके लिए आवश्यकतानुसार बर्तन बनाने, रहने के लिए मकान तैयार करने, वस्त्र निर्माण आदि जीवनोपयोगी शिल्प की शिक्षा दी।
आदिवासी भारतीय जाति का निर्माण, गठन, रचना तथा तन्त्रीकरण करना