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जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की प्राचीनता * 45
विशेष अभिरुचि प्रकट की, उस वर्ग के लोगों को 'शूद्र' की संज्ञा दी।
इस प्रकार ऋषभदेव के समय में क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्षों में समाज को विभाजित किया गया।
आचार्य जिनसेन के अनुसार ब्राह्मण वर्ण की उत्पत्ति महाराज भरत के द्वारा हुई। भरत ने चक्रवर्ती बनने के पश्चात् सोचा, कि यदि बुद्धिजीवी लोगों का एक वर्ण तैयार किया जाए, जो त्रिवर्ण के लोगों को भी नैतिक जीवन निर्माण में बौद्धिक सहयोग दें, तो समाज का नैतिक स्तर भी ऊँचा होगा। इसके लिए उन्होंने पहले भगवान ऋषभदेव व उनके अनुयायी श्रमणों को आमन्त्रित किया। लेकिन उन्होंने त्यक्त भोग सामग्री को पुनः स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। तब महाराज भरत ने अपने से गुणाधिक श्रावकों को बुलाकर कहा- आप अपनी जीविका के लिए व्यवसाय, सेवा, कृषि आदि कोई कार्य न करें, मैं आप लोगों की जीविका की व्यवस्था करूंगा। आपका कार्य केवल शास्त्रों का श्रवण, पठन, एवं मनन व देव गुरु की सेवा करते रहना है।
इस प्रकार अनेकों श्रावक प्रतिदिन भरत की भोजनशाला में भोजन करते और बोलते – 'वर्द्धते भयं, माहण, माहण' - अर्थात् भय बढ़ रहा है, हिंसा मत करो, हिंसा मत करो। वे लोग आरम्भ परिग्रह की प्रवृत्तियों से अलग रहकर लोगों को माहनमाहन, ऐसी शिक्षा देते, अतः उन्हें माहण अथवा ब्राह्मण' कहा जाने लगा।"
इस प्रकार आदिनाथ से लेकर भरत के राज्यकाल तक चार वर्णों की स्थापना
ऋषभदेवजी द्वारा दीक्षा ( प्रव्रज्या ) धर्म का सूत्रपात- ऋषभदेवजी की आयु 84 लाख पूर्व वर्ष थी। उन्होंने 20 लाख वर्ष पूर्व का कुमार काल व्यतीत करके 63 लाख पूर्व वर्ष तक सामाजिक व राजनैतिक व्यवस्था करते हुए राज्य किया।" ऋषभदेवजी की देह 500 धनुष की थी। उसके पश्चात् उन्होंने अपना सारा साम्राज्य अपने सौ पुत्रों को विभाजित करके सौंप दिया। उसके पश्चात् उन्होंने 1 वर्ष तक गरीबों को दान दिया, जिससे सभी लोगों को पता लग गया, कि ऋषभदेव जी उन्हें छोड़कर जा रहे हैं। चैत्र कृष्ण अष्टमी के दिन ऋषभदेवजी ने शहर के बाहर उपवन में जाकर अपने सभी वस्त्राभूषण इन्द्र को सौंपकर, चतुर्मुष्ठि लोच किया। इन्द्र के कहने पर मध्य बाल रख लिए। इसके पश्चात् 'नमो सिद्धाणं' कहकर दीक्षा व्रत अंगीकार किया। उनके साथ 4 हजार लोगों ने भी प्रव्रज्या ग्रहण की। छद्मस्थ अवस्था में भगवान ऋषभदेव ने मौन व्रत धारण कर लिया था। अतः सभी अनुयायी साध्वाचार के उपयुक्त निर्देश के अभाव में वन-विहारी हो गए तथा अपनी इच्छानुसार कंदमूल-फल आदि खाकर विचरण करने लगे। कुछ भूख-प्यास आदि परिषहों से संत्रस्त होकर वल्कलधारी तापस हो गए।