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466 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
व्रतों को धारण करने के पश्चात् श्रावक की साधनाचर्या का आगे का सोपान है प्रतिमा धारण करने का।
4. प्रतिमा : प्रतिमा का अर्थ है - श्रावक की विशिष्ट साधना पद्धति, विशेष प्रतिज्ञा, व्रत व तप आदि। श्रावक धर्म स्थान में जाकर अणुव्रतों एवं शिक्षाव्रतों के अतिरिक्त जिन प्रतिज्ञाओं को विशष्ट रूप से धारण करता है, उन्हें प्रतिमा कहा गया है। प्रतिमाएँ वही श्रावक ग्रहण करता है, जिसे नवतत्त्व का सम्यक् ज्ञान होता है, तभी वह प्रतिमाओं का सम्यक् प्रकार से पालन कर सकता है। श्रावक की ये प्रतिमाएँ 11 बतायी गयी हैं, जो इस प्रकार हैं।" 1. दर्शन प्रतिमा
___2. व्रत प्रतिमा 3. सामायिक प्रतिमा 4. पौषध प्रतिमा 5. कायोत्सर्ग प्रतिमा 6. अब्रह्मवर्जन प्रतिमा 7. सचित्ताहार वर्जन प्रतिमा 8. स्वयमारम्भ वर्जन प्रतिमा 9. प्रेष्यारम्भवर्जन प्रतिमा 10. • उद्दिष्ट भक्त वर्जन प्रतिमा 11. श्रमण भूत प्रतिमा।
प्रथम प्रतिमा का काल एक माह है, द्वितीय प्रतिमा का काल दो माह है, इस प्रकार एक-एक प्रतिमा एक-एक माह अधिक तक बढ़ती जाती है। अंतिम ग्यारहवीं प्रतिमा का काल ग्यारह माह है। इस प्रकार समस्त प्रतिमाओं का पूरा काल पाँच वर्ष छह माह होता है। प्रत्येक प्रतिमा के धारण से पहले उपासक के द्वारा उससे पहले की प्रतिमा का यथाकाल यथानियम अभ्यास कर लिया जाना आवश्यक है। अर्थात् प्रत्येक प्रतिमा में उसकी पूर्व प्रतिमा के गुण साथ में विद्यमान होने चाहिये। यह उत्तरोत्तर श्रावकगुणों के विकास के सोपान है। 1. दर्शन प्रतिमा : जीव, अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य
एवं पाप रुप नव पदार्थों पर यथार्थ श्रद्धा होना सम्यग्दर्शन है। जब श्रावक शुद्ध सम्यग्दर्शन का निरतिचार पालन करता है तथा पंच परमेष्टि रूप पंचगुरु की शरण में सम्यक् श्रद्धा से नत होता है, वही दर्शन प्रतिमा कही
जाती है।” 2. व्रत प्रतिमा : दर्शन प्रतिमा का पूर्ण अभ्यास कर लेने के बाद अतिचार
रहित पाँच अणुव्रतों तथा सात शिक्षाव्रतों के पालन की प्रतिज्ञा करना व्रत प्रतिमा है। इस प्रतिमा में श्रावक में क्षमा, दया, सहनशीलता आदि
मानवीय सद्गुणों का विकास होने लगता है। 3. सामायिक प्रतिमा : दर्शन तथा व्रत प्रतिमा से युक्त श्रावक प्रातः मध्याह्न
तथा सांय, जो सामायिक करता है, वह सामायिक प्रतिमा है। मन को एकाग्र कर बाह्य अभ्यांतर परिग्रह का त्याग कर कुछ निश्चित समय (48