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नीति मीमांसा * 443
स्थान पर जाना चाहिये तथा न अपने अंगों को विकृत करके दूसरों को
भयभीत करना चाहिये। 11. शय्या परीषह : शीत-तपादि के परीषह को सहन करने में समर्थ तपस्वी
साधु को यदि स्त्री, पशु आदि से रहित स्थान, ऊँची-नीची (अनुकूलप्रतिकूल) शय्या मिले तो हर्ष विषाद न करता हुआ संयम धर्म की मर्यादा का उल्लंघन न करे, क्योंकि यह अच्छा है, यह बुरा है, इस प्रकार पाप दृष्टि रखने वाला साधु, संयम की मर्यादा का उल्लंघन कर शिथिलाचारी
हो जाता है।” 12. आक्रोश : कोई व्यक्ति साधु को गाली देवे, बुरे वचन कह कर उसका
अपमान करे, तो उस पर क्रोध नहीं करे, क्योंकि ऐसा करने से वह
अज्ञानियों सरीखा हो जाता है, इसलिए साधु क्रोध न करे। 13. वध परीषह : यदि कोई दुष्ट अनार्य पुरुष साधु को मारे, तो साधु उस पर
क्रोध न करे । मन से भी उस पर द्वेष न लावे, 'क्षमा उत्कृष्ट धर्म है।' ऐसा जानकर, साधु क्षमा, मार्दव आदि दस विध यति धर्म का विचार करके
पालन करे। 14. याचना परीषह : भिक्षा से निर्वाह करने वाले साधु का जीवन निश्चय ही
बड़ा कठिन है, क्योंकि उसे सभी आहार-उपकरण आदि वस्तु सदा माँगने पर ही मिलती है, बिना माँगे कोई भी वस्तु नहीं मिलती है। साधु इस प्रकार विचार भी न करे, कि भिक्षा माँगने से तो गृहस्थ जीवन ही अच्छा
15. अलाभ परीषह : साधु को भोजन तैयार हो जाने पर ही गृहस्थों के यहाँ
आहार की गवेषणा के लिए निकलना चाहिये। आहार मिले अथवा न मिले या अल्प मिले तो उसे खेद नहीं करना चाहिये।" मुझे आज आहार नहीं मिला तो कल मिल जाएगा, जो साधु आहार प्राप्त न होने पर इस प्रकार विचार करे, दीनभाव नहीं लाता, उसे अलाभ परीषह नहीं सताता
16. रोग परीषह : यदि साधु श्वास, कास आदि सोलह प्रकार के रोगों में से
किसी प्रकार की वेदना से पीड़ित हो, वह उसे स्वकृत कर्म का फल जानकर दीनता रहित होकर अपनी बुद्धि को स्थित करे और रोग से पीड़ित होने पर समभाव पूर्वक उसे सहन करे। किसी प्रकार की सावध
चिकित्सा न करे, न करावे। 17. तृण-स्पर्श परीषह : तपस्वी मुनि को तृणों पर सोते हुए शरीर में पीड़ा
होती है। अत्यन्त धूप पड़ने से और तृणों के स्पर्श से अत्यधिक वेदना