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नीति मीमांसा * 433
गुप्ति रूप संवर है। गुप्ति के तीन भेद कहे गए हैं - 1. मनोगुप्ति, 2. वचन गुप्ति और 3. काय गुप्ति। ___ 1. मनोगुप्ति : मन की रागादि अशुभ भावों से निवृत्ति को मनोगुप्ति कहते हैं। उत्तराध्ययन में कहा है -
“संरम्भे-समारम्भे आरम्भे य तहेव य।
मणं पवत्तमाणं तु नियत्तेज जयं जई॥47 बुरे संकल्पों का विचार करना मानसिक संरम्भ है। उन बुरे संकल्पों की पूर्ति हेतु उपाय सोचना या उसके साधनों का उच्चाटनादि का चिन्तन करना मानसिक समारंभ है। बुरे संकल्प और बुरे उपायों द्वारा उस दुष्ट संकल्प की पूर्ति हेतु मन की परिणति को बना लेना मानसिक आरंभ है। इस प्रकार मानसिक संरम्भ, समारम्भ और आरंभ से मन को हटा लेना-मनोगुप्ति है।
2. वचनगुप्ति : ऐसे वचन, जिनसे अशुभ कार्य हो, उस वचन में प्रवृत्त न होना ही वचनगुप्ति है। सब प्रकार के वचनों का परिहार करके मौन रहना वचन गुप्ति है। असत्य, कर्कश, कठोर, मर्मभेदी, क्लेशकारी, पर-निन्द्यरूप आत्म-प्रशंसा रूप अथवा विकथा रूप वचन न बोलना श्रमण के लिए वचन गुप्ति है।
3. काय गुप्ति : शरीर की क्रियाओं की निवृत्ति के अथवा शरीर के ममत्व के त्याग या निश्चलता को कायगुप्ति कहते हैं। उठना, बैठना, खड़े होना, सोना आदि सब क्रियाओं को यतना पूर्वक करना, जिससे किसी को कोई हानि या क्षति न हो।
सम्यक् चारित्र की आराधना के लिए साधु को गुप्ति और समिति का पालन करना आवश्यक होता है।
2. समिति : “सम् एकीभावेन इतिः प्रवृत्तिः शोभनक परिणामस्य चेष्टेत्यर्थः।"
अर्थात् एक निष्ठा के साथ की जाने वाली शुभ प्रवृत्तियों को समिति कहते हैं। इसके अन्तर्गत आचरण करने योग्य उन क्रियाओं का उल्लेख है, जो साधु के संयम पालन करने के लिए आवश्यक है। समिति के पाँच भेद हैं -
__ "इर्या भाषा एषणादान निक्षेपोत्सर्गाः समितियः। 48 अर्थात् इर्या, भाषा, एषणा, आदान, निक्षेप और उत्सर्ग यह पाँच भेद समिति के
1. इर्या समिति : गति सम्बन्धि जागरूकता एवं यतनापूर्वक चलना इर्या समिति है। अर्थात् चलते समय जीव हिंसा न हो यह साधु के लिए ध्यान रखना आवश्यक है। जैन धर्म में साधुओं के आवागमन को अहिंसक बनाये रखने के लिए विविध नियमों का निर्देश किया गया है। जैसे - । 1. आलम्बन शुद्धि : साधु को अकारण आवागमन नहीं करना चाहिए। ज्ञान