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नीति मीमांसा* 431
से ग्रहण नहीं कराऊँगा तथा अदत्त वस्तु ग्रहण करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूँगा। मैं अतीत के अदत्तादान से निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा एवं गर्दा करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ।"
इस व्रत के निर्दोष पालन के लिए वह भिक्षा में प्राप्त भोजन आचार्य को दिखाकर सेवन करता है। जीवनोपयोगी वस्तुओं को परिमित मात्रा में सेवन करता है, जीवनोपयोगी वस्तुओं को परिमित मात्रा में तथा बहुत कम बार याचना करता है।
4. सर्व मैथुन विरमण व्रत (ब्रह्मचर्य) : देव, मनुष्य तथा तिर्यंच सम्बन्धी मैथुन का जीवन पर्यंत त्याग करना सर्व मैथुन विरमण व्रत है। इस महाव्रत को धारण करते हुए श्रमण प्रतिज्ञा करते हैं, कि भंते! मैं सब प्रकार के मैथुन का प्रत्याख्यान करता हूँ। आजीवन तीन करण, तीन योग से मन, वचन, काया से देव, मनुष्य व तीर्यंच सम्बन्धी मैथुन का मैं स्वयं सेवन नहीं करूंगा, दूसरों से सेवन नहीं कराऊँगा तथा सेवन करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। मैं अतीत के मैथुन सेवन से निवृत होता हूँ, उसकी निन्दा व गर्दा करता हूँ तथा आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ।"
ब्रह्मचर्य व्रत की यह महाप्रतिज्ञा समस्त आध्यात्मिक साधनाओं का मूल है। वैदिक, बौद्ध तथा जैन सभी परम्पराओं में ब्रह्मचर्य को सभी व्रतों में विशिष्ट और बड़ा माना गया है। जैन परम्परा में इस व्रत के निर्दोष पालन के लिए नव विध ब्रह्मचर्य गुप्ति का विधान किया गया है। ये नववाड़ इस प्रकार हैं -
1. स्त्री जनाकीर्ण स्थान का परित्याग करना। 2. मनोरम स्त्री कथा का त्याग करना। 3. स्त्रियों से परिचय न करना, उनके आसन पर न बैठना। 4. स्त्रियों के अंगोपांग न निहारना। 5. स्त्रियों के शब्द-गीत आदि न सुनना। 6. भुक्त भोगों का स्मरण न करना। 7. सरस भक्त पान अर्थात् सरस भोजन का त्याग करना। 8. अतिमात्रा में भोजन न करना। 9. स्वयं के शरीर का श्रृंगार न करना।
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव तथा अन्तिम महावीर के काल में ही इस व्रत का पृथक् से प्रतिपादन किया गया है। शेष 22 तीर्थंकरों ने स्त्री को परिग्रह रूप मानकर, ब्रह्मचर्य व्रत को परिग्रह परिमाण व्रत में ही सम्मिलित कर दिया था।
5. सर्व परिग्रह विरमण व्रत (अपरिग्रह) : समस्त पदार्थों में ममत्वभाव का सर्वथा परित्याग ही सर्वपरिग्रह विरमण व्रत है। इस पांचवें महाव्रत को अंगीकार करते हुए श्रमण यह प्रतिज्ञा करते हैं, कि भंते! मैं सर्व परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूँ। आजीवन तीन करण, तीन योग से मन, वचन, काया से, गाँव में, नगर में या अरण्य में