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412 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
दूसरे को कभी नहीं छोड़ते। मरने पर भारुण्ड पक्षी उन्हें उठाकर गिरिदरी में फेंक देते
उत्तरकुरु की स्थिति महाभारत में सुमेरु से उत्तर और नील पर्वत के दक्षिण पार्श्व में मानी है। राजतरंगिणी में बताया गया है, कि काश्मीर राज ललितादित्य के कम्बोज, भूःखार, दरद, स्त्रीराज्य आदि को जीत लेने पर उत्तर कुरुवासियों ने भय से पर्वत प्रदेश का आश्रय लिया। इस कथन से यह ज्ञात होता है, कि उत्तर कुरु की स्थिति स्त्री राज्य के बाद है। स्त्री राज्य गन्धमादन से उत्तर पश्चिम प्रतीत होता है, जिसका वर्तमान स्थान तिब्बत का पश्चिमांश है।
हरिवंशपुराण में नील और सुमेरु के मध्य में उत्तर कुरु की स्थिति मानी गयी है। तथा निषद्य और सुमेरु मे मध्य में देवकुरु की। अतः जैन दर्शन में वर्णित उत्तर कुरु यारकन्द या जरफ्शां नदी के तट पर होना चाहिये।
जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही मान्यताओं के आधार पर उत्तरकुरु में भोगभूमि सिद्ध होती है। दीघनिकाय के आटानाटियसुत्त में बताया गया है, कि उतर कुरुवासी व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं रखते थे। इन्हें अपने जीवन निर्वाह के लिए परिश्रम नहीं करना पड़ता और अनाज अपने आप उत्पन्न होता है। वहाँ के मनुष्यों का जीवन निश्चिन्त
और सुखमय है।" अंगुत्तर निकाय और मज्झिम निकाय की अट्टकथाओं में बताया गया है, कि उत्तरकुरु में कल्पवृक्ष है। कप्परुख जो एक कल्पपर्यन्त रहता है। एक अन्य विवरण के अनुसार इस देश के निवासियों के घर नहीं होते और वे भूमि पर शयन करते है। इसी कारण वे भूमिसया भूमि पर शयन करने वाले कहलाते हैं। सम्पत्ति का परिग्रह वहाँ नहीं है। व्यक्ति निर्लोभ वृत्ति के नियतायुष्क होते हैं।
इस प्रकार यह विदित होता है, कि जैन दर्शन के उत्तरकुरु भोगभूमि के सम्बन्ध में जो रहन-सहन की व्यवस्था दर्शायी गयी है, वही बौद्धागम में भी पायी जाती है तथा वाल्मीकि रामायण एवं महाभारत में भी भोगभूमि की स्थिति का ऐसा ही वर्णन किया गया है। वस्तुतः तीनों परम्पराओं में उत्तरकुरु में भोगभूमि मानी गयी है।
भरत क्षेत्र : जैन परम्परा में भरतक्षेत्र का व्यवहार उसी अर्थ में किया गया है, जिस अर्थ में बौद्ध परम्परा में जम्बूद्वीप का व्यवहार पाया जाता है। आदिपुराण में भरतक्षेत्र को हिमवन्त के दक्षिण और पूर्वी-पश्चिमी समुद्रों के बीच स्थित माना है।
__इस क्षेत्र में सुकौशल,अवन्ती, पुण्ड्र, अश्मक, कुरु, काशी, कलिंग, अङ्ग, वङ्ग, सुह्य, समुद्रक, काश्मीर, उशीनर, आनर्त, वत्स, पंचाल, मालव, दशार्ण, कच्छ, मगध, विदर्भ, कुरुजंगल, करहाट, महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, आभीर, कोंकण, वनवास, आंध्र, कर्णाटक, कौशल, चोल, केरल, दास, अभिसार, सौविर, शूरसेन, अपरान्तक, विदेह, सिन्धु, गान्धार, यवन, चेदि, पल्लव, कम्बोज, आरट्ट, वाल्हीक, तुरुष्क, शक और कैकय देशों की रचना मानी गयी है। भरत चक्रवर्ती के द्वारा विजित देशों के वर्णन