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392 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
17. आज्ञापनिका : किसी को आज्ञा देने अथवा आज्ञा देकर कोई भी सचित्त
अचित्त वस्तु मंगवाने से आज्ञापनिका क्रिया लगती है। 18. वैदारणिका : जीव-अजीव किसी भी वस्तु के विदारण से, चीरने-फाड़ने
से लगने वाली क्रिया को वैदारणिका क्रिया कहते हैं। अन्य के पापों को
प्रकाशित करने से लगने वाली क्रिया को भी विदारण-क्रिया कहते है। 19. अनाभोग-प्रत्यया : अज्ञान या असावधानी से कार्य करने पर लगने वाली
क्रिया को अनाभोग प्रत्यया क्रिया कहते हैं। 20. अनवकांक्षा प्रत्यया : जिनोक्त कर्त्तव्य-विधियों में प्रमाद के कारण
अनादर भाव रखने से लगने वाली क्रिया को अनवकांक्षा-प्रत्यया क्रिया
कहते हैं। 21. प्रेम प्रत्यया : राग रूप, माया एवं लोभ से लगने वाली क्रिया को
पेज्जवत्तिया कहते हैं। इसके दो भेद हैं - माया करने से लगने वाली क्रिया __ और लोभ करने से लगने वाली क्रिया। 22. द्वेष प्रत्यया : द्वेष रूप क्रोध और मान से लगने वाली क्रिया को द्वेष
प्रत्यया कहते हैं। 23. प्रयोग क्रिया : अयतना के साथ गमन करना, आकुंचन प्रसारण करना
आदि शारीरिक चेष्टाओं से लगने वाली क्रिया को प्रयोग क्रिया कहते हैं। 24. समुदान क्रिया : तीनों योगों द्वारा जो कर्मों का उपादान होता है, वह
समुदान या समादान क्रिया है। समुदाविया क्रिया का बहुप्रचलित अर्थ है-बहुत से लोगों द्वारा एक साथ एक क्रिया का किया जाना और उसके निमित्त से सबको एक सरीखी क्रिया का लगना तथा सबको एक साथ उसका परिणाम भी भुगताना। जैसे टोली बनाकर खेलना, कम्पनी बनाकर सावध व्यवसाय करना।
इस प्रकार उक्त चौबीस क्रियाएँ साम्परायिक आस्रव की निमित्तभूत हैं। 25. ईर्यापथ क्रिया : पच्चीसवीं क्रिया ईर्यापथ क्रिया है, जो कषाय रहित
आत्माओं को केवल योग के निमित्त से लगती है। 3. योग सम्बन्धी आस्रव : मन, वचन और काया की प्रवृत्ति द्वारा जो तीन प्रकार से कर्मों का आस्रव होता है, वह योगास्रव है।
इस प्रकार 5 इन्द्रियों के आस्रव, 4 कषायों के आस्रव 5 अव्रत सम्बन्धी आस्रव, 25 क्रिया आस्रव तथा 3 योग आस्रव कुल 42 आस्रव होते हैं।
6. संवर : कर्मों के आस्त्रवण को रोकना ही संवर है। आत्मा से संबद्ध होने के लिए जिन आस्रव द्वारों से कर्मों का आगमन होता है, उन द्वारों का निरोध कर देना संवर कहलाता है। जिसे सभी द्रव्यों के प्रति राग, द्वेष या मोह नहीं है, जो इन्द्रिय