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तत्त्व मीमांसा * 385
सुस्वरनाम, 37. आदेय नाम, 38. यशोकिर्ति नाम, 39. देवायु, 40. मनुष्यायु, 41. तिर्यंचायु और42. तीर्थंकर नाम।" । उपर्युक्त पुण्य की 42 प्रकृतियों में पंचेन्द्रिय जाति, मनुष्य शरीर, वज्र ऋषभ नाराच संहनन आदि मोक्ष की सामग्री सम्मिलित है। अन्तराय कर्म क्षयोपशम सहित पुण्य के बिना यह सामग्री नहीं मिलती और इस सामग्री के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। अतएव विवेक के साथ पुण्य तत्त्व का स्वरूप समझकर उसको यथोचित रूप से ग्रहण करना चाहिये।
पुण्य की हेय-ज्ञेय उपादेयता - पुण्य तत्त्व को गहराई से समझना चाहिये, क्योंकि यह मोक्षमार्ग प्रशस्त करता है। यह ऐसा तत्त्व है, जो विविध भूमिकाओं में उपादेय-ज्ञेय और हेय बन जाता है। चारित्र (सर्व-विरति) प्राप्ति की भूमिकाओं में पुण्य तत्त्व उपादेय है, क्योंकि पंचेन्द्रियत्व, मनुष्यभव, आर्यक्षेत्र आदि संयम ग्रहण की सामग्री पुण्य के बिना प्राप्त नहीं होती। जब तक पुण्य का सहारा नहीं लिया जाता, तब तक यह सामग्री प्राप्त नहीं होती। इस सामग्री के अभाव में संयम की प्राप्ति नहीं हो सकती। सर्व विरति रूप चारित्र स्वीकार करने के पश्चात् संयमावस्था में पुण्य तत्त्व ज्ञेय एवं उपादेय है, हेय नहीं। चारित्र की पूर्णता होने पर अर्थात् चौदहवें गुणस्थान में वह हेय हो जाता है। क्योंकि शरीर को छोड़े बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। सब कर्म-प्रकृतियों के सर्वथा क्षय होने पर ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।
जिस प्रकार समुद्र के एक किनारे से दूसरे किनारे पर जाने के लिए जहाज पर चढ़ना आवश्यक है और किनारे पहुँचकर उसका त्याग करना भी आवश्यक है। दोनों का अवलम्बन लिए बिना पार पहुँचना सम्भव नहीं है। इसी प्रकार प्राथमिक भूमिका में पुण्य तत्त्व को अपनाना आवश्यक है और आत्म-विकास की चरम सीमा के निकट पहुँचने पर उसे छोड़ देना भी आवश्यक है। जहाज में बैठे हुए व्यक्ति के लिए वह ज्ञेय है और उपादेय है, हेय नहीं। संसार रूपी समुद्र के पार होने के लिए पुण्य रूपी पोत (जहाज) की आवश्यकता है, किन्तु चौदहवें गुणस्थान में पहुँचने के पश्चात् मोक्षरूपी नगर की प्राप्ति के समय पुण्य हेय हो जाता है।
जो व्यक्ति या जो समुदाय विशेष इस भूमिका के भेद को समझे बिना पहले से ही पुण्य को हेय समझकर त्याग देता है उसकी वही दशा होती है, जो किनारे पहुँचने से पहले ही जहाज को छोड़ देता है। बीच में जहाज को त्याग देने वाला समुद्र में डूबता है और पुण्य को त्याग देने वाला संसार-समुद्र में डूबता है।
जो पक्ष पुण्य को एकान्ततः हेय बतलाता है, क्योंकि पुण्य भी पाप की ही भाँति बन्धन का धारक है और मोक्ष के लिए तो बन्धन का सर्वथा अभाव ही श्रेय है, वह पुण्य को नहीं जाने। ऐसे लोग सीधे ही छलांग मारकर लक्ष्य प्राप्ति की बात करते हैं, बीच के साधन अथवा मार्ग के बारे में सोचते ही नहीं। उनके अनुसार तो तीर्थंकर