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346 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
प्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं है। पंचास्तिकाय अस्तित्व से नियत, अनन्यमय तथा अणु-महान है।" अर्थात् पर्यायार्थिक नय से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमयी सामान्य-विशेष सत्ता में अपने से कदाचित भिन्न होने के कारण अस्तित्व में नियत हैं। द्रव्यार्थिक नय से स्वयंसत् होने के कारण वे अस्तित्व से अनन्य है। अणुमहान कहने का तात्पर्य है, कि प्रदेश में बड़े अर्थात् अनेक प्रदेशी है। पंचास्तिकाय चाहे द्रव्य रुप में हो अथवा शक्ति अपेक्षा से हो अनेक प्रदेशी होते हैं। पुद्गल यद्यपि अणुरुप भी होता है, किंतु शक्ति की अपेक्षा से स्कन्ध रुप या अनेक प्रदेशी भी होता है। अन्य चार द्रव्य द्रव्यरुप से ही अनेक प्रदेशी होते हैं।
पंचास्तिकाय सहित कालद्रव्य रुप से षद्रव्य के सामान्य स्वरुप को जानने के पश्चात् अब उनके पृथक-पृथक् विशेष स्वरुप को समझना भी आवश्यक है।
जीव द्रव्यास्तिकाय : आत्मा के स्वरुप के संबंध में दार्शनिकों में मतभेद पाये जाते हैं। कोई आत्मा को सर्वव्यापक मानते हैं, तो कोई अणुरुप मानते हैं, कोई उसे स्वदेह प्रमाण बतलाते हैं। कोई आत्मा को अंगुष्ठ मात्र मानते हैं। कोई आत्मा को नित्य मानते हैं, तो कोई अनित्य। कोई आत्मा को कर्ता और भोक्त मानते हैं, तो कोई अकर्ता मानते हैं।
जैन दर्शन के अनुसार आत्मा उपयोगमय, परिणामी, नित्य, अमूर्त, कर्ता, साक्षात्, भोक्ता, स्वदेह परिमाण, असंख्यात प्रदेशी, पौद्गलिक अदृष्टवान है।
'नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा।
वीरिअं उपओगो य एयं जीवस्स लक्खणं॥20 ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग- जीव के लक्षण हैं। जीव का असाधारण गुण, जिसके कारण यह अन्य द्रव्यों से पृथक् सिद्ध होता है। वह चेतना (उपयोग) है। उपयोग का अर्थ है, बोधरुप व्यापार। उपयोग दो प्रकार का है - ज्ञानोपयोग तथा दर्शनापयोग। ज्ञानोपयोग को साकार उपयोग कहा जाता है तथा दर्शनोपयोग को अनाकार उपयोग। साकार उपयोग के आठ भेद हैं-- 1. मतिज्ञान, 2. श्रुतज्ञान, 3. अवधिज्ञान, 4. मनः पर्यय ज्ञान, 5. केवल ज्ञान, 6. मति-अज्ञान, 7. श्रुत अज्ञान व 8. विभंग ज्ञान।
अनाकार उपयोग के चार भेद हैं- 1. चक्षु दर्शन, 2. अचक्षु दर्शन, 3. अवधि दर्शन, 4. केवल दर्शन। नेत्र जन्य सामान्य बोध को चक्षु दर्शन कहते हैं।' नेत्र के अतिरिक्त अन्य किसी इन्द्रिय या मन से होने वाला सामान्य बोध अचक्षु दर्शन, 3. अवधि लब्धि से मूर्त पदार्थों का सामान्य बोध अवधि दर्शन, 4. केवल लब्धि से समस्त पदार्थों का सामान्य बोध केवल दर्शन है। इस प्रकार उपयोग के कुल बारह भेद
जिस समय चैतन्य ‘स्वयं' से भिन्न किसी श्रेय को जानता है, उस समय वह