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340 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
'पृथक्रुप'। दूध और दही की भिन्नता अन्यत्व रुप और कागज तथा कलम की भिन्नता पृथकत्व रुप है। दूध और दही के पर्याय में अन्तर है, मगर मूल द्रव्य-प्रदेशों में नहीं, जबकि कागज और कलम के प्रदेश मूलतः पृथक्-पृथक् हैं। मनुष्य बालक है, युवा है, वृद्ध है। इन दशाओं में अन्यत्व तो है, किन्तु पृथकत्व नहीं, क्योंकि इन तीन अवस्थाओं में मूलतः मनुष्य एक ही है।
द्रव्य, गुण और पर्याय में भी पृथकत्व रुप भिन्नता नहीं हैं। द्रव्य की वह अनादिनिधन शक्तियाँ जो द्रव्य में व्याप्त होकर वर्तमान रहती है, गुण कहलाती हैं, और उत्पन्न-विनष्ट होने वाले विविध परिणाम ‘पर्याय' कहलाते हैं। इन दोनों का समूह द्रव्य कहलाता है।
मौलिक एवं तात्विक दृष्टि से विश्व का विशेषण किया जाए, तो दो द्रव्य उपलब्ध होते हैं- चेतन और जड़।” कतिपय दार्शनिक जगत के मूल में एक मात्र चैतन्यमय तत्व की सत्ता अंगीकार करते हैं, तो दूसरे एक मात्र जड़ तत्व की। लेकिन जैन दर्शन न अद्वैतवादी हैं, और न अनात्मवादी। अतएव वह दोनों तत्वों के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार करता है। जड़ तत्व में इतनी विविधता और व्यापकता है, कि उसे समझने के लिए थोड़े पृथक्क्रण की आवश्यकता होती है। अतः उसको पांच भागों में विभक्त कर दिया गया है। जीव के साथ उन पाँच प्रकार के अजीवों की गणना करने से सत् पदार्थों अथवा द्रव्यों की संख्या छह हो जाती है, जो निम्नलिखित है- 1. जीव, 2. पुद्गल, 3. धर्मास्तिकाय, 4. अधर्मास्तिकाय, 5. आकाश, 6. काल।
यह समग्र चराचर लोक इन्हीं षद्रव्यों का प्रपंच है। इनके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। द्रव्य नित्य है, अतएव लोक भी नित्य है। उसका किसी भी भौतिक लोकोत्तर शक्ति द्वारा निर्माण नहीं किया गया है। उनके कारणों से समय-समय पर उसमें परिवर्तन हुआ करते हैं, किन्तु मूल-द्रव्यों का न नाश होता है और न उत्पाद ही। इसी कारण जैन धर्म अनेक परमात्मा (मुक्त-आत्माओं) की सत्ता स्वीकार करता हुआ भी उन्हें सृष्टि कर्ता नहीं मानता।
जीव, पुद्गल आदि को द्रव्य कहने का कारण, उनका विविध परिणामों से द्रवित होना है। परिणाम या पर्याय के बिना द्रव्य नहीं रहता और बिना द्रव्य के पदार्थ का अस्तित्व नहीं होता।
परिणमनों के प्रकार : द्रव्य (सत्) के परिणाम दो प्रकार के होते हैं- एक स्वभावात्मक और दूसरा विभाव रुप। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और अनन्त कालाणुद्रव्य ये सदा शुद्ध स्वभाव रुप परिणमन करते हैं। इनमें पूर्व पर्याय नष्ट होकर भी जो नयी उत्तर पर्याय उत्पन्न होती है, वह सदृश और स्वभवात्मक ही होता है, उसमें विलक्षणता नहीं आती। प्रत्येक द्रव्य में एक 'अगुरुलघु' गुण या शक्ति है, जिसके कारण द्रव्य की समतुला बनी रहती है, वह न तो गुरु होता है और न लघु।