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314* जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
जैनों की मान्यता है, कि चतुर्दशपूर्वधर वे ही साधक हो सकते हैं, जिनमें नियमतः सम्यग्दर्शन होता है। अतएव उनके ग्रन्थों में आगम विरोधी बातों की संभावना ही नहीं है।
पश्चात्काल में ऐसे कई आदेश जिनका समर्थन किसी शास्त्र से नहीं होता, किन्तु जो स्थविरों ने अपनी प्रतिभा के बल से किसी विषय में दी हुई सम्मति मात्र हैं, उनका समावेश भी अंगबाह्य आगम में कर लिया गया है। इतना ही नहीं कुछ मुक्तकों को भी उसी में प्रधान प्राप्त है।
अब तक आगम के प्रामाण्य-अप्रामाण्य का जो विचार किया है, वह वक्ता की दृष्टि से। अर्थात् किस वक्ता के वचन को व्यवहार में सर्वथा प्रमाण माना जाए। आगम के प्रामाण्य या अप्रामाण्य का एक दूसरी दृष्टि से भी अर्थात् श्रोता की दृष्टि से भी आगमों में विचार हुआ है, उसे भी बता देना आवश्यक है।
__शब्द तो निर्जीव है और सभी सांकेतिक अर्थ के प्रतिपादन की योग्यता रखते हैं। अतएव सर्वार्थिक भी हैं। ऐसी स्थिति में निश्चय दृष्टि से विचार करने पर शब्द का प्रामाण्य जैसा मीमांसक मानता है, स्वतः नहीं वरन् प्रयोक्ता के गुण के कारण सिद्ध होता है। इतना ही नहीं बल्कि श्रोता या पाठक के कारण भी प्रमाण्य या अप्रामाण्य का निर्णय करना पड़ता है। अतएव यह आवश्यक हो जाता है, कि वक्ता और श्रोता दोनों की दृष्टि से आगम के प्रामाण्य का विचार किया जाए।
शास्त्र की रचना निष्प्रयोजन नहीं वरन् श्रोता को अभ्युदय और निःश्रेयस मार्ग का प्रदर्शन करने की दृष्टि से ही है, यह सर्वसम्मत है। किन्तु शास्त्र की उपकारकता या अनुपकारकता मात्र शब्दों पर निर्भर न होकर श्रोता की योग्यता पर भी निर्भर है। यही कारण है, कि एक ही शास्त्रवचन के नाना और परस्पर विरोधी अर्थ निकालकर दार्शनिक लोग नाना मतवाद खड़े कर देते हैं। एक भगवद्गीता या एक ही ब्रह्मसूत्र कितने विरोधी वादों का मूल बना हुआ है। अतः श्रोता की दृष्टि से किसी एक ग्रन्थ को नियमतः सम्यक् या मिथ्या कहना या किसी एक ग्रन्थ को ही आगम कहना, निश्चय दृष्टि से भ्रमजनक है। यही सोचकर मूल ध्येय मुक्ति की पूर्ति में सहायक ऐसे सभी शास्त्रों को जैनाचार्यों ने सम्यक् या प्रमाण माना है। यही व्यापक दृष्टि बिन्दु आध्यात्मिक दृष्टि से जैन परम्परा में पाया जाता है। इस दृष्टि के अनुसार वेदादि सब शास्त्र जैनों को मान्य है। जिस जीव की श्रद्धा सम्यक् है, उसके सामने कोई भी शास्त्र
आ जाए वह उसका उपयोग मोक्ष मार्ग को प्रशस्त बनाने में ही करेगा। अतएव उसके लिए सब शास्त्र प्रमाणिक है, सम्यक् है। किन्तु जिस जीव की श्रद्धा ही विपरीत है यानी जिसे मुक्ति की कामना ही नहीं, उसके लिए वेदादि तो क्या तथाकथित जैनागम भी मिथ्या है, अप्रामण है। इस दृष्टि बिन्दु में सत्य का आग्रह है, साम्प्रदायिक कदाग्रह नहीं।