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________________ 292 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन जाणइ, से सव्वे जाणइ'"'' अर्थात् जो एक आत्मा को जानता है, वह सब पदार्थों को जानता है। निश्चयनय से केवलज्ञान का तात्पर्य है, आत्मस्वरूप को जानना, लेकिन व्यवहारनय से केवलज्ञान को सर्वज्ञता के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। अनन्तपर्याय वाले एक द्रव्य को संपूर्ण रूप से जानने का अर्थ सर्वज्ञता ही हो जाता है। जब तक एक आत्म द्रव्य की संपूर्ण पर्यायों को जानता है, तो वह आत्मज्ञ होने के साथ ही सर्वज्ञ भी हो जाता है। अर्थात् केवलज्ञान को सर्वज्ञता और आत्मज्ञता दो पृथक्-पृथक् रूपों में व्याख्यायित करना, दो भिन्न दृष्टियों से चिन्तन करना है। वास्तव में दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जो एक साथ केवलज्ञान में अन्तर्भूत होते हैं। जैसा कि प्रवचनसार में लिखा है - “तिक्कालणिच्चविसमं सयलं सव्वत्थसंभवं चित्तं। जुगवं जाणदि जोण्हं अहो हि णाणस्स माहप्पं ।'' अर्थात् तीनों काल में सदा विषम सर्व क्षेत्र के अनेक प्रकार के समस्त पदार्थों को जिनदेव का ज्ञाता (केवलज्ञान) एक साथ जानता है। अहो! ज्ञान का माहात्म्य। ___ यह गाथा केवलज्ञान की सर्वज्ञता के महत्त्व को प्रकट करती है। केवलज्ञानी सर्वज्ञ होता है। पाँचों ज्ञानों के ग्राह्य विषयः मति आदि चारों ज्ञान कितने ही विशुद्ध हों, किन्तु वे चेतनाशक्ति के अपूर्ण विकसित रूप होने से एक वस्तु के भी समग्र भावों को जानने में असमर्थ हैं। इन सभी ज्ञानों के अन्तर्गत किसी भी द्रव्य की कुछ ही पर्यायों को जाना जा सकता है, संपूर्ण पर्यायों को नहीं। तत्त्वार्थ सूत्र में इनके ग्राह्य विषय इस प्रकार कहे गए हैं - ___ 'मतिश्रुतयोनिर्बन्धः सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु।"18 अर्थात् मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की प्रवृत्ति (ग्राह्यता) सर्व पर्याय रहित अर्थात् परिमित पर्यायों से युक्त सब द्रव्यों में होती है। "रुपिष्बवधेः॥"119 अवधि ज्ञान की प्रवृत्ति सर्व पर्याय रहित केवल रूपी (मूर्त) द्रव्यों में होती है। “तदनन्त भागे मन: पर्यायस्य।"120 मनःपर्याय की ग्राह्यता उस रूपी द्रव्य के सर्व पर्याय रहित अनन्तवें भाग में होती है। ___ "सर्वद्रव्य पर्यायेषु केवलस्य।"127 केवलज्ञान की ग्राह्यता सभी द्रव्यों की सभी पर्यायों में होती है। जो ज्ञान किसी एक वस्तु के सम्पूर्ण भावों को जान सकता है, वह समस्त वस्तुओं के सम्पूर्ण भावों को भी ग्रहण कर सकता है। वही ज्ञान पूर्ण ज्ञान कहलाता है, उसी को केवलज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान चेतना शक्ति के सम्पूर्ण विकास के समय प्रकट होता है। अतः
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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