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________________ 290 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन वाला है और मनुष्य क्षेत्र में सीमित तथा चारित्रयुक्त साधु के क्षयोपशम गुण से उत्पन्न होने वाला है। मन वाले (संज्ञी) प्राणी किसी भी वस्तु या पदार्थ का चिन्तन मन द्वारा करते हैं। चिंतनीय वस्तु के भेद के अनुसार चिन्तन में प्रवृत्त मन भिन्न-भिन्न आकृतियों को धारण करता रहता है । वे आकृतियाँ ही मन के पर्याय हैं और उन मानसिक आकृतियों को साक्षात् जानने वाला ज्ञान मनःपर्यय है । इस ज्ञान से चिन्तनशील मन की आकृतियाँ जानी जाती है, लेकिन चिन्तनीय वस्तुएँ नहीं जानी जा सकती । वस्तुओं को बाद में मन:पर्यय ज्ञान वाला अनुमान के द्वारा ही जान सकता है। जैसे मनस शास्त्री किसी का चेहरा या हाव भाव देखकर उस व्यक्ति के मनोभावों तथा सामर्थ्य का ज्ञान अनुमान से करता है, वैसे ही मन:पर्यय ज्ञानी मन:पर्यय ज्ञान से किसी के मन की आकृतियों को प्रत्यक्ष देखकर बाद में अभ्यासवश अनुमान कर लेता है, कि यह व्यक्ति अमुक वस्तु के चिन्तन के समय आवश्यक होने वाली अमुक-अमुक प्रकार की आकृतियों से युक्त है। मन:पर्यय ज्ञान के दो भेद हैं- एक ऋजुमति और दूसरा विपुलमति ।" जो विषय को सामान्य रूप से जानता है, वह ऋजुमति मन:पर्यय ज्ञान है और जो विशेष रूप से जानता है, वह विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान है । ऋजुमति को सामान्य ग्राही कहने का अभिप्राय यह है, कि वह विशेषों को जानता तो है, किन्तु विपुलमति के जितने स्पष्ट रूप से विशेषों को नहीं जानता । ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति मनः पर्यय ज्ञान विशुद्धतर होता है, क्योंकि वह सूक्ष्मतर और अधिक विशेषों को स्फुटतया जान सकता है। इसके अतिरिक्त दोनों में यह भी अन्तर है, कि ऋजुमति उत्पन्न होने के बाद कदाचित् नष्ट भी हो जाता है। लेकिन विपुलमति केवलज्ञान की प्राप्ति पर्यंत बना ही रहता है। मन:पर्यय ज्ञान भी इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही होता है। दूसरे का मन तो इसमें केवल आलम्बन पड़ता है। मन:पर्यय ज्ञान दूसरे के मन में आने वाले विचारों को अर्थात् विचार करने वाली मन की पर्यायों को साक्षात् जानता है और उसके अनुसार बाह्य पदार्थों को अनुमान से जानता है । मन:पर्यय ज्ञान प्रकृष्ट चारित्र वाले साधु को ही होता है । इसका विषय अवधिज्ञान से अनन्तवाँ भाग सूक्ष्म होता है। इसका क्षेत्र मनुष्य लोक के बराबर है। अवधिज्ञान व मन:पर्यय ज्ञान में अन्तर : अवधि और मन:पर्यय दोनों पारमार्थिक विकाल (अपूर्ण) प्रत्यक्ष रूप से समान हैं तथापि दोनों में कई प्रकार का अन्तर है, जैसा कि उमास्वाति उल्लेख करते हैं हैं। "विशुद्धिक्षेत्रस्वामि विषयेभ्योऽबधि मनः पर्याययोः ॥'''' अर्थात् विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय में अवधिज्ञान से मन:पर्यय ज्ञान विशेष
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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