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288 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
पारमार्थिक प्रत्यक्ष संपूर्ण रूप से विशद् ज्ञान होता है। इन्द्रिय और मन के व्यापार की उसमें आवश्यकता नहीं होती। अर्थात् यह ज्ञान परापेक्षी नहीं होता। आगमों में पारमार्थिक प्रत्यक्ष को नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा गया है। नन्दीसूत्र एवं अनुयोगद्वार दोनों में ही नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष को तीन प्रकार का कहा गया है - अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान व केवलज्ञान। प्रवचनसार में तो पारमार्थिक प्रत्यक्ष को ही प्रत्यक्ष प्रमाण की कोटी में रखा गया है, इन्द्रिय प्रत्यक्ष को परोक्ष ज्ञान कहा गया है। वादिदेवसूरि ने पारमार्थिक प्रत्यक्ष को दो प्रकार का कहा है - सकल प्रत्यक्ष और विकल प्रत्यक्ष।
केवलज्ञान को सकल प्रत्यक्ष की श्रेणी में रखा गया है, केवल ज्ञान का तात्पर्य है, सर्वज्ञता, संपूर्ण ज्ञान। विकल प्रत्यक्ष के अन्तर्गत अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान को रखा है, क्योंकि ये दोनों ही आंशिक ज्ञान है। दोनों ही अपनी-अपनी सीमाओं में बन्धे होते हैं।
1. अवधिज्ञान : अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाला, भवप्रत्यय तथा गुणप्रत्यय, रूपी द्रव्यों को जानने वाला ज्ञान अवधिज्ञान कहालाता है। यह आत्मादि अरूपी द्रव्यों को जानने में सक्षम नहीं है। यद्यपि यह सूक्ष्म रूप से एक परमाणु को भी जान सकता है। चूँकि इसकी अपनी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा निश्चित है और यह नीचे की तरफ अधिक विषय को जानता है, अतः अवधिज्ञान कहा जाता है। अवधिज्ञान दो प्रकार का होता है - भव प्रत्यय और गुण प्रत्यय।
___ जो अवधिज्ञान जन्म से ही प्रकट होता है, उसे भव प्रत्ययिक कहते हैं। यह देवों और नारकियों को ही होता है। जिसके आविर्भाव के लिए व्रत, नियम आदि गुणों का अनुष्ठान किया जाता है, उसे गुण प्रत्यय अथवा क्षयोपशम जन्य अवधिज्ञान कहते हैं। मनुष्य और तिर्यंचों के गुण प्रत्यय अवधिज्ञान होता है। गुण प्रत्यय एवं भव प्रत्यय अवधिज्ञान का भेद इस प्रकार का होता है, कि जैसे पक्षियों में आकाश में उड़ने की क्षमता व ज्ञान जन्म से ही होता है, जबकि मनुष्य आकाश में नहीं उड़ सकता, जब तक कि वह विमान आदि का सहारा न ले।
गुण प्रत्ययिक अवधिज्ञान के छः भेद हैं-आनुगामिक, अनानुगामिक, वर्धमान, हीयमान, प्रतिपाति एवं अप्रतिपाति। नन्दीसूत्र में इसका विस्तृत विवेचन किया गया
"अहवा गुणपडिवन्नस्स अणगारस्स ओहिनाणं समुप्पज्जइ, तं समासओ छव्विहं पण्णत्तं, तंजहा-आणुगामियं 1, अणाणुगामियं 2, वड्डमाणयं 3, हीयमाणयं 4, पडिवायं 5, अप्पडिवाइयं 6110
1. आनुगामिक : जो अवधिज्ञान अपने उत्पत्तिक्षेत्र को छोड़कर दूसरी जगह चले जाने पर भी कायम रहता है, उसे आनुगामिक कहते हैं। आनुगामिक अवधिज्ञान