________________
280 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
इस प्रकार से तो मति, स्मृति, संज्ञा और चिन्ता पर्यायवाची शब्द न होकर पृथक्-पृथक् लगते हैं। किंतु विषय भेद और कुछ निमित्त भेद होने पर भी मति, स्मृति, संज्ञा और चिन्ता ज्ञान का अन्तरंग कारण जो मतिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम है, वही सामान्यरूप से यहाँ परिलक्षित है। इसी अभिप्राय से यहाँ मति आदि शब्दों को एकार्थक कहा है। मतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से होने वाले सब प्रकार के ज्ञानों के लिए एक सामान्य शब्द अभिनिबोध को प्रयुक्त किया गया है। मति आदि क्षयोपशमजन्य विशेष ज्ञानों के लिए है।
1. सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष : सांव्यवहार प्रत्यक्ष पाँच इन्द्रियों और मन इन छह कारणों से उत्पन्न होता है। अर्थात् मतिज्ञान को ही सांव्यवहार प्रत्यक्ष कहा गया है। सांव्यवहार प्रत्यक्ष दो प्रकार का कहा गया है - 1. इन्द्रिय सांव्यवहार प्रत्यक्ष व 2. अनिन्द्रिय सांव्यवहार प्रत्यक्ष।
"तत्राद्यं द्विविधमिन्द्रियनिबन्धनमनिन्द्रियनिबन्धनं च। इन्द्रिय सांव्यवहार प्रत्यक्ष स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण-इन पाँच इन्द्रियों की सहायता से उत्पन्न होता है। अनिन्द्रिय सांव्यवहार प्रत्यक्ष केवल मन से उत्पन्न होता है।
इन्द्रियों की प्राप्यकारिका-अप्राप्यकारिता : इन्द्रियों में चक्षु और मन अप्राप्यकारी है अर्थात् ये पदार्थ को प्राप्त किए बिना ही दूर से ही उसका ज्ञान कर लेते हैं। स्पर्शन, रसना और घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ पदार्थों से सम्बद्ध होकर उन्हें जानती है। कान शब्द को स्पृष्ट होने पर सुनता है। स्पर्शनादि तीन इन्द्रियाँ पदार्थों के सम्बद्धकाल में उनसे स्पृष्ट भी होती है और बद्ध भी। बद्ध का अर्थ है - इन्द्रियों में अल्पकालिक विकार परिणति। जैसे-अत्यन्त ठण्डे पानी में हाथ डालने से वह इतना ठिठुर जाता है, कि उससे दूसरा स्पर्श शीघ्र गृहीत नहीं होता। किसी तेज गरम पदार्थ को खा लेने पर रसना भी विकृत होती हुई देखी जाती है। लेकिन कान से किसी भी प्रकार के शब्द सुनने पर ऐसा कोई विकार अनुभव में नहीं आता।
सन्निकर्ष विचार : नैयायिकादि चक्ष का भी पदार्थ के साथ सन्निकर्ष मानते हैं। उनका कहना है, कि चक्षु तैजस पदार्थ है। उसकी किरणें निकलकर पदार्थों से सम्बन्ध करती है और तब चक्षु के द्वारा पदार्थ का ज्ञान होता है। चक्षु चूँकि पदार्थ के रूप रस आदि गुणों में से केवल रूप को ही प्रकाशित करते हैं, अतः वह दीपक की तरह तैजस है। मन व्यापक आत्मा से संयुक्त होता है। और आत्मा जगत के समस्त पदार्थों से संयुक्त है, अतः मन किसी भी बाह्य पदार्थ को संयुक्त संयोग आदि सम्बन्धों से जानता है। मन सुख का साक्षात्कार संयुक्त समवाय सम्बन्ध से करता है। अतः मन और चक्षु दोनों अप्राप्यकारी है।
जैन दर्शन के अनुसार चक्षु का पदार्थ के साथ सन्निकर्ष सिद्ध नहीं होता। इसके