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ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा)* 269
ज्ञान
प्रत्यक्ष प्रमाण
परोक्ष प्रमाण
अवधिज्ञान मनःपर्ययज्ञान केवलज्ञान मतिज्ञान श्रुतज्ञान
इस प्रकार यद्यपि आगम पश्चात काल में जैन दार्शनिकों ने जैन दृष्टि से प्रमाण विभाग किया है। तथापि प्राचीन आगमों में प्रमाण विचार जैन दृष्टि से स्वतंत्र रूप से नहीं किया गया है। अपितु उस काल प्रसिद्ध अन्य दार्शनिकों के प्रमाण विचारों का संग्रह मात्र किया है।
प्राचीन काल में प्रमाण भेद के संदर्भ में अनेक परम्पराएँ प्रसिद्ध रहीं। उनमें से तीन और चार भेदों का निर्देश आगम में मिलता है, जो पूर्वोक्त विवरण से स्पष्ट है। ऐसा होने का कारण यह है, कि प्रमाण विवेचन में निष्णात प्राचीन नैयायिकों ने प्रमाण के चार भेदों को ही स्वीकार किया है। उन्हीं का अनुकरण चरक और बौद्धों ने भी किया है। इसी का अनुकरण जैनागमों में भी हुआ है। प्रमाण के तीन भेद मानने की परंपरा भी प्राचीन है। इसका अनुकरण सांख्य, चरक और बौद्धों में हुआ है। यही परम्परा स्थानांगसूत्र के अन्तर्गत सुरक्षित है। योगाचार बौद्धों ने तो दिग्नाग के सुधार को अर्थात् प्रमाण के दो भेद की परम्परा को भी नहीं माना है और दिग्नाग के बाद भी अपनी तीन प्रमाण की परम्परा को ही मान्य रखा है, जो कि स्थिरमति की मध्यान्त टीका से स्पष्ट होता है। उपर्युक्त विवेचन को हम अग्रसारीणी के द्वारा अच्छी तरह समझ सकते हैं। शास्त्र
प्रमाण 1. अनुयोग द्वार सुत्र प्रत्यक्ष अनुमान उपमान आगम भगवती सूत्र प्रत्यक्ष अनुमान
आगम 3. स्थानांग सूत्र
प्रत्यक्ष अनुमान उपमान आगम 4. चरक संहिता
प्रत्यक्ष अनुमान उपमान आगम न्याय सूत्र
प्रत्यक्ष अनुमान उपमान आगम विग्रहव्यावर्तनी
प्रत्यक्ष
अनुमान उपमान आगम उपायहदय
प्रत्यक्ष अनुमान उपमान आगम सांख्यकारिका प्रत्यक्ष अनुमान
आगम 9. योगाचार भूमिशास्त्र प्रत्यक्ष
आगम 10. अभिधर्मसंगीतिशास्त्र । प्रत्यक्ष अनुमान
आगम 11. विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि प्रत्यक्ष अनुमान
आगम 12. मध्यान्त विभागवृत्ति प्रत्यक्ष अनुमान
आगम 13. वैशेषिक सूत्र
प्रत्यक्ष अनुमान
2.
उपमान
5.
अनुमान
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