________________
262 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
इन्द्रियजन्य ज्ञानों को परोक्ष नहीं, अपितु प्रत्यक्ष माना है । इन्द्रिय ज्ञान को प्रत्यक्ष में स्थान देकर उस लौकिक मत का समन्वय करना भी नन्दीकार को अभिप्रेत था ।
आचार्य जिनभद्र ने इस समन्वय को लक्ष्य में रखकर ही स्पष्टीकरण किया है, कि वस्तुतः इन्द्रिय प्रत्यक्ष को सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष कहना चाहिये । अर्थात् लोक व्यवहार के अनुरोध से ही इन्द्रियज मति को प्रत्यक्ष कहा गया है। वस्तुतः वह परोक्ष ही है। क्योंकि प्रत्यक्ष - कोटि में परमार्थतः आत्ममात्र सापेक्ष ऐसे अवधि, मन:पर्यय और केवल ये तीन ही हैं। अतः इस भूमिका में ज्ञानों का प्रत्यक्ष परोक्षत्व व्यवहार इस प्रकार स्थिर हुआ है
1. अवधि, मनः पर्याय और केवल ज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं 2. श्रुत परोक्ष ज्ञान ही है।
3. इन्द्रिय जन्य भतिज्ञान पारमार्थिक दृष्टि से परोक्ष है और व्यावहारिक दृष्टि से प्रत्यक्ष है।
1
4. मनोजन्य मतिज्ञान परोक्ष ही है ।
आचार्य अकलंक ने तथा तदनुसारी अन्य जैनाचार्यों ने प्रत्यक्ष के सांव्यावहारिक और पारमार्थिक ऐसे जो भेद किए हैं, जो उनकी नयी सूझ नहीं है। वरन् उनका मूल नन्दी सूत्र और उसके जिनभद्रकृत स्पष्टीकरण में है।"
नन्दीसूत्र, स्थानांग सूत्र एवं अन्य अनेक प्राचीन आगमिक साहित्य से जैन दर्शन का ज्ञान विषयक विवेचन अन्य दर्शनों से सर्वथा पृथक् व अद्वितीय है। जैन आगमों में अद्वैतवादियों की तरह जगत को वस्तु और अवस्तु माया में तो विभक्त नहीं किया है, किन्तु संसार की प्रत्येक वस्तु में स्वभाव और विभाव सन्निहित है, यह प्रतिपादित किया है । वस्तु का निरपेक्ष जो रूप है, वह स्वभाव है, जैसे आत्मा का चैतन्य, ज्ञान, सुख आदि और पुद्गल की जड़ता। किसी भी काल में आत्मा ज्ञान या चेतना रहित नहीं होती और पुद्गल में जड़ता भी त्रिकालाबाधित है। वस्तु का जो परसापेक्षरूप है, वह विभाव है, जैसे आत्मा का मनुष्यत्व, देवत्व आदि और पुद्गल का शरीर रूप परिणाम । मनुष्य को हम न तो केवल आत्मा ही कह सकते हैं, न केवल पुद्गल ही । इसी प्रकार शरीर भी केवल पुद्गल रूप नहीं कहा जा सकता। आत्मा का मनुष्य रूप होना भी परसापेक्ष है और पुद्गल रूप और शरीररूप होना भी परसापेक्ष है । अतः आत्मा का मनुष्य रूप और पुद्गल का शरीर रूप ये दोनों ही आत्मा और पुद्गल के विभाव हैं।
जैन दर्शन यह प्रतिपादित नहीं करता, कि स्वभाव ही सत्य है और विभाव मिथ्या है। उनके मत में विकलाबाधित वस्तु ही सत्य है, ऐसा एकान्त नहीं है । प्रत्येक वस्तु चाहे अपने विभाव में स्थित हो या स्वभाव में, सत्य है। तद्विषयक हमारा ज्ञान मिथ्या हो सकता है, जबकि हम स्वभाव को विभाव समझें या विभाव को स्वभाव ।