SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 24 जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन अर्थात् जो निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि तथा परिग्रह रहित होकर ब्रह्म के मार्ग में सम्यक् प्रकार से संलग्न है, वह शुद्ध मनोवृत्ति वाला है, प्राण रक्षा के लिए भिक्षा द्वारा आहार ग्रहण करता है तथा लाभ - अलाभ को समदृष्टि रखता है, वह परम हंस है। नारद परिव्राजकोपनिषद् में लिखा है - 'यथा विधिश्चेज्जातरूपधरो भूत्वा .. "" 168 . जातरूपधरश्चरे दात्मानमन्विच्छे यथा-जात रुपधरो निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रह स्तत्वब्रह्ममार्गे सम्यक् सम्पन्नः । इसी प्रकार परमहंसोपनिषद् में भी परमहंस दिगम्बर भिक्षु का विवेचन मिलता " इदमन्तरं ज्ञात्वा स परमहंस आकाशाम्बरो न नमस्कारो । न स्वाहाकारो न निन्दा न स्तुति या दृच्छिको भवेत्सभिक्षुः । "" इस प्रकार विभिन्न उपनिषदों में दिगम्बर निर्ग्रथों का विवेचन मिलता है। प्राचीनतम उपनिषदों में भी जैन तीर्थंकरों की आराधना की गई है। जैसे कि वृहदारण्यक उपनिषद् में लिखा है - “दीर्घायुत्वा युवला युर्वा शुभ जातायु ॐ रक्ष रक्ष अरिष्टनेमि स्वाहा । वामदेव शान्त्यर्थ मनुविधीयते सास्माकं अरिष्टनेमि स्वाहा ॥' ऋषभं पवित्रं पुरुहूत ध्वरं यज्ञेषु यज्ञ परम पवित्रं श्रुतधरं यज्ञं प्रति प्रधानं 70 ऋतुयजन पशुमिंद्र माहवेति स्वाहा ॥ ज्ञातारमिन्द्रं ऋषभं वदन्ति, अतिचारमिन्द्रं, तमरिष्टनेमिं भवेभवे सुभवं सुपार्श्वमिन्द्रं हवेतुशक्रं अजितं जिनेन्द्र, तट्टवर्द्धमानं पुरुहुतमिन्द्रं स्वाहा ॥ दधातु दीर्घायुस्तत्वाय बलयवर्चसे, सुप्रजास्त्वाय रक्ष रक्ष रिष्टनेमि स्वाहा ॥" - 1 महाभारत में विमलाचल पर्वत पर नेमि जिनके मुक्तिमार्ग का प्रतिपादन करने का उल्लेख है।” बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथ कृष्ण के चचेरे भाई थे । अतः महाभारत में उनका विवेचन ऐतिहासिक तथ्य है । छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार भगवान नेमिनाथ के द्वारा ही श्री कृष्ण को अहिंसा का उपदेश मिला था । महाभारत में ऋषभदेव के सन्दर्भ में भी कहा गया है, कि अर्हत ऋषभदेव के चारित्र पर मोहित हो गए।" भारतीय संस्कृति के महान् ग्रन्थ योगवाशिष्ठं में श्री रामचन्द्र जी अपनी हार्दिक इच्छा व्यक्त करते हुए कहते हैं, कि मुझे किसी वस्तु की आकांक्षा नहीं है, मैं तो जिन की तरह अपने आपमें शांति- - लाभ प्राप्त करना चाहता हूँ।” इससे स्पष्ट है, कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम के समय से पहले भी जैन तीर्थंकरों के पवित्र जीवन की छाप भारतीय जनमानस पर अंकित थी । यहाँ उल्लेखनीय है, कि बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत स्वामी राम के समकालीन थे। संभव है राम उन्हीं से प्रेरित हुए हों ।
SR No.022845
Book TitleJain Sanskruti Ka Itihas Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMinakshi Daga
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2014
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy