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ज्ञान मीमांसा (प्रमाण मीमांसा)
मानव व्यक्तित्व के विकास की दिशा में ज्ञान का सर्वाधिक महत्व है। मानव जीवन की सफलता उसके ज्ञान की मात्रा पर अवलंबित होती है। ज्ञान के अभाव में तो मनुष्य को मनुष्य ही नहीं कहा जा सकता। बौद्धिक एवं आत्मिक ज्ञान मानव को विकास की ऊँचाइयों पर पहुँचाता है। लेकिन इन्द्रिय ज्ञान तो प्रत्येक जीव के अस्तित्व की प्रथम आवश्यकता है। ज्ञान की मानव जीवन में बहुत अहं भूमिका है, अतः मनीषियों और दार्शनिकों ने ज्ञान का विशद् विवेचन किया है।
ज्ञान क्या है? ज्ञान कैसे उत्पन्न होता है? ज्ञान प्राप्ति के साधन क्या हैं? क्या समस्त प्राप्त ज्ञान यथार्थ होता है? ज्ञान कितने प्रकार का होता है? आदि-आदि अनेक ज्ञान संबंधी प्रश्नों का अन्वेषण ज्ञान मीमांसा के अन्तर्गत किया जाता है।
ज्ञान का शाब्दिक अर्थ है, जानना। जानना आत्मा का गुण है। अर्थात ज्ञान आत्मा का गुण है। जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान ‘स्व-आभासि' है। ज्ञान का स्वरुप ज्ञान है, यह जानने के लिए अर्थ प्राकट्य (अर्थ बोध) की अपेक्षा नहीं है।
1. ज्ञान प्रमेय ही नहीं वरन् स्वयं प्रमाण भी है। 2. ज्ञान अचेतन नहीं जड प्रकृति का विकार नहीं वरन् आत्मा का गुण है।
जैन दर्शन के अनुसार पदार्थ का परिबोध या अधिगम प्रमाण और नय के द्वारा होता है, जैसा कि तत्वार्थसूत्र में कहा है :
" प्रमाण नयैरधिगमः अर्थात् प्रामण और नय के द्वारा तत्वों का अधिगम करने के लिए प्रमाण और नय उपायभूत हैं। इसलिए समस्त भारतीय दार्शनिकों ने प्रमाण को सर्वाधिक महत्व दिया है। प्रमाण से ही प्रमेय का प्रामाणिक परिबोध होता है। प्रमाण के बिना प्रमेय की सिद्धि नहीं हो सकती।
__ आध्यात्म और दर्शन के चिन्तकों ने समस्त विश्व के आकलन और संकलन की दृष्टि से प्रमाता-प्रमाण और प्रमेय की त्रिपुटी को स्वीकार किया है। इसी का दूसरा रुप ज्ञाता-ज्ञान और ज्ञेय की त्रिपुटी है। इस त्रिपुटी में विश्व के समस्त तत्वों और दर्शनों का समावेश हो जाता है। इस त्रिपुटी को केन्द्रबिन्दु मानकर ही भरतीय दर्शनशास्त्रों की रचना हुई और उनका उत्तरोत्तर विकास होता रहा है। विश्व में जो घटक प्रमाता है-ज्ञाता है, वह एक मात्र चेतन तत्व है, जो जीव कहा जाता है। जो