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22 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
विवेचन है, कि भरत को राज्य सौंपेने के पश्चात् वे तपस्या के लिए पुलहाश्रम चले गये। वहाँ तपस्या के कारण अत्यंत कृश हो गये। अन्त में उन्होंने नग्नावस्था में महाप्रस्थान किया। तब से यह हिम वर्ष लोक में भारत वर्ष के नाम से प्रसिद्ध हुआ।" प्रभास पुराण में भी कहा गया है -
"कैलाशे विमले रम्ये, वृषभोऽयं जिनेश्वरः ।
चकार स्वावतारं च, सर्वज्ञः सर्वग: शिवः ॥" शिव पुराण में उन्हें शिव के अट्ठाईस योगावतारों में गिनाया गया है तथा निवृत्ति मार्ग की वृद्धि के लिए उनका जन्म होने का वर्णन है।
विष्णु पुराण में हंसगीता नामक अध्याय में जैन साधु के दस धर्मों को यति धर्म का आचार बताया है। यथा एक बार भोजन, मौनवृत्ति, इन्द्रिय निरोध, राग-द्वेष रहितता आदि।
स्कन्धपुराण में जैन तीर्थंकर नेमिनाथ को शिव के अनुरुप मानकर जाप करने का विधान किया है
"मनोभीष्ठार्थ- सिद्धार्थ तत: सिद्धमवाप्तमान।
नेमिनाथ शिवेत्येवं नामचक्रे शवामनः॥" ब्रम्हाण्ड पुराण में भी कहा है
"ननादयो न पश्येतुः श्राद्ध श्राद्धकर्म-व्यवस्थितम्।
__वृद्धश्रावक निर्ग्रन्थः इत्यादि॥" लिंग पुराण में भी जैन नग्न साधु का उल्लेख है
"सर्वात्मनात्मनिस्थाप्य परमात्मानमीश्वरवरं।
नग्नो जये निराहारो चीरीध्वांतगतो हिंसः॥" ब्रह्माण्ड पुराण में आगे भगवान ऋषभदेव, उनके माता-पिता एवं केवल-ज्ञान के संदर्भ में जो विवेचन मिलता है, वह जैन आगमों के अनुकूल ही है। इसमें ऋषभदेव को नाभि और मरुदेवी का क्षत्रिय वंशी पुत्र बताया गया है। ऋषभदेव ने अपने सौ पुत्रों के अग्रज, भरत का राज्याभिषेक करके महाप्रव्रज्या ग्रहण कर ली। ऋषभदेव ने दस प्रकार के धर्म को धारण करके केवलज्ञान को प्राप्त किया। अग्नि पुराण में ऋषभदेव व भरत के साथ पाँचवे तीर्थंकर सुमति नाथ का भी उल्लेख मिलता
उपनिषद् साहित्य में भी यत्र-तत्र जैन संस्कृति के विद्यमान होने के प्रमाण मिलते हैं। वृहदारण्यक, छन्दोग्य, जाबाल, सन्यास, ईशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषद आदि में अनेक स्थानों पर जैन तीर्थंकरों तथा दिगम्बर मुनियों का उल्लेख है। साथ ही उपनिषद् साहित्य पर जैन दर्शन का स्पष्ट प्रभाव भी देखने को मिलता है। उपनिषदों से पूर्व वैदिक दर्शन में देवताओं की स्तुति एवं यज्ञ विधियों का विवेचन ही मिलता है।