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जैन दार्शनिक सिद्धान्त 227
रह जाएगा। सभी द्रव्य सर्वरूप हो जाएंगे अर्थात् एकरूप हो जाएंगे । अत्यंताभाव के कारण ही एक द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप नहीं हो पाता है । द्रव्य चाहे सजातीय है या विजातीय उनका अपना-अपना अखण्ड स्वरूप होता है। एक द्रव्य दूसरे में कभी भी ऐसा विलीन नहीं होता, जिससे उसकी सत्ता ही समाप्त हो जाए।
इस प्रकार ये प्राग्भाव आदि चार अभाव भी अन्य धर्मों की भाँति ही वस्तुगत अन्य धर्म है। अतः प्रकारान्तर से वस्तु के गुण होने से ये भाव रूप ही हैं। इनका लोप होने पर अर्थात् पदार्थों को सर्वथा भावात्मक मानने पर वस्तु में उपर्युक्त दोष आ जाते हैं । अतः वस्तु भावरूप भी है तथा अभावरूप भी । वस्तु को भावात्मक मानने पर ही इन अभावों का यथार्थ आशय फलित होता है । अतः वस्तु भावाभावात्मक है।
अभाव वस्तु का एक अंश है। लेकिन एकान्त वादी दृष्टिकोण से यदि वस्तु को सर्वथा अभावात्मक ही माना जाए तो सर्वथा शून्य होगा । तब अभाव के साधक ज्ञान और वचन रूप प्रमाण का भी अभाव होने से 'अभावात्मक तत्त्व' की स्वयं कैसे प्रतीति होगी? तथा पर को कैसे समझाया जाएगा? स्वप्रतिपत्ति का साधन है, बोध तथा पर प्रतिपत्ति का उपाय है, वचन । इन दोनों के अभाव में स्वपक्ष का साधन और पर पक्ष का दूषण कैसे हो सकेगा? अतएव सर्वथा अभाव मानना तो एकान्तवादियों के लिए भी संभव नहीं है और अवाच्यैकान्त तो अवाच्य होने से ही अयुक्त है।
प्रत्येक
इस प्रकार विचार करने पर लोक का प्रत्येक पदार्थ भावात्मक प्रतीत होता है । 'वस्तु कथंचित स्वद्रव्य क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से अस्तीत्व-भाव रूप है और कथंचित् पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से अभावरूप है। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु में अपेक्षा भेद से विधि - निषेध दोनों धर्म विद्यमान हैं । अतः स्वरूप की अपेक्षा से भाववादी का कथन, कि वस्तु भावात्मक है, सत्य है और पर रूप की अपेक्षा से अभाववादी का कथन, कि वस्तु अभावात्मक है - सत्य होगा। किंतु यह आवश्यक है, कि दोनों अपना-अपना एकान्ताग्रह छोड़कर परस्पर एक दूसरे का दृष्टिकोण समझें और स्वीकार करें तभी पूर्ण सत्य बनता है।
इस प्रकार स्वरूपमय होना ही पदार्थ मात्र की अनेकान्तात्मकता को सिद्ध कर देता है। यहाँ तक तो पदार्थ की सामान्य स्थिति का विवेचन हुआ । अब प्रत्येक द्रव्य की दृष्टि से देखें, तो पदार्थ में सत्-असत्, नित्य - अनित्य, सामान्य- विशेष, एकअनेक, भेद-अभेद आदि अनन्त गुण हैं । इनके आधार पर पृथक्-पृथक् रूप से पदार्थ के स्याद्वाद रूप का परीक्षण करेंगे।
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1. सदसदात्मक तत्त्व : प्रत्येक द्रव्य का अपना असाधारण स्वरूप होता है । किसी भी द्रव्य को नितान्त सत् अथवा नितान्त असत् नहीं कहा जा सकता । स्याद्वाद दृष्टि के अनुसार प्रत्येक पदार्थ सदसदात्मक है ।
'द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ये चारों चतुष्टय कहलाते हैं । प्रत्येक वस्तु