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216 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
कर्म बन्धन से मुक्ति का उपाय : भारतीय दर्शन में कर्म बंध और उसके कारणों के विवेचन के साथ ही उन कर्मों से मुक्त होने के साधनों का प्रतिपादन भी किया गया है। आत्मा नित्य नवीन कर्मों का बन्धन करता है तथा पुराने कर्मों को भोग कर नष्ट करता है। ऐसा कोई समय नहीं है, जबकि जीव कर्म न बाँधता हो। तब प्रश्न उठता है, कि वह कर्मों से मुक्त कैसे होगा? उत्तर है - तप और साधना से। जैसे खान में सोना और मिट्टी दोनों एकमेक होते हैं, किन्तु ताप आदि के द्वारा जैसे उन्हें अलगअलग कर दिया जाता है, वैसे ही आत्मा और कर्मों को भी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूप रत्नत्रय से पृथक् किया जा सकता है।
जैन दर्शन ने न्याय-वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त, महायान (बौद्ध) की भांति एकान्तरूप से ज्ञान को प्रमुखता नहीं दी है और न एकान्तरूप से मीमांसक दर्शन की तरह क्रिया-काण्ड पर ही बल दिया है। किन्तु ज्ञान और क्रिया इन दोनों के समन्वय को ही मोक्ष मार्ग माना है। चारित्रयुक्त अल्पज्ञान ही मोक्ष का हेतु है और विराट् ज्ञान भी यदि चारित्र रहित है, तो मोक्ष का कारण नहीं है। अर्थात् सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र मोक्ष के हेतु हैं। जहाँ ये दोनों हैं वहाँ सम्यग्दर्शन अवश्य होता है। जैन आगमों में ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को मोक्ष मार्ग के रूप में स्वीकार किया है। जैन दर्शन में इसी मोक्षमार्ग को रत्नत्रय भी कहा है।
बद्ध कर्मों से मुक्त होने के लिए सर्वप्रथम साधक संवर की साधना से नवीन कर्मों के आगमन को रोकता है। आचार्य हेमचन्द्र के शब्दों में – “जिस प्रकार चौराहे पर स्थित बहुद्वार वाले गृह में द्वार बंद न होने पर निश्चय ही रज प्रविष्ट होती है और चिकनाई के योग से वहीं चिपक जाती है। यदि द्वार बंद हो तो रज प्रविष्ट नहीं होती
और न चिपकती है, वैसे ही योगादि आस्रवों को सर्वतः अवरुद्ध कर देने पर संवृत जीव के प्रदेशों में कर्म द्रव्य का प्रवेश नहीं होता।'
जिस प्रकार तालाब में सर्वद्वारों से जल का प्रवेश होता है, पर द्वारों को प्रतिरुद्ध कर देने पर थोड़ा भी जल प्रविष्ट नहीं होता, वैसे ही योगादि आस्रवों को सर्वतः अवरुद्ध कर देने पर संवृत्त जीव के प्रदेशों में कर्म द्रव्य का प्रवेश नहीं होता।
जिस प्रकार नौका में छिद्रों से जल प्रवेश पाता है और छिद्रों को रोक देने पर थोड़ा भी जल प्रविष्ट नहीं होता। वैसे ही योगादि आस्रवों को सर्वतः अवरुद्ध कर देने पर संवृत जीव के प्रदेशों में कर्म द्रव्य का प्रवेश नहीं होता।
इस प्रकार साधक संवर के द्वारा आगन्तुक कर्मों को रोकने के साथ-साथ निर्जरा की साधना से पूर्व संचित कर्मों का क्षय करता है। कर्मों का एक देश से आत्मा से छूटना निर्जरा है। जब आत्मा सम्पूर्ण कर्मों को सर्वतो भावेन नष्ट कर देता है, तब वह सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है। जब आत्मा एक बार पूर्ण रूप से कर्मों से विमुक्त हो जाता है, तो फिर वह कभी कर्मबद्ध नहीं होता। क्योंकि उस अवस्था में