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214* जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
10. निकाचित : जिसमें उद्वर्तन-अपवर्तन, संक्रमण एवं उदीरणा इन चारों अवस्थाओं का अभाव हो वह निकाचित कर्म है। निधत्त किए हुए नये कर्मों का ऐसा सुदृढ़ बन्ध हो जाना जिससे वे एक-दूसरे से पृथक् न हो सकें, जिसमें कोई कारण कुछ भी परिवर्तन न कर सके अर्थात् कर्म जिस रूप में बंधे हैं, उन्हें उसी रूप में भोगने पड़ें, ऐसे कर्म को 'निकाचित' कहते हैं। निकाचित कर्मों की निर्जरा भोगे बिना नहीं होती। यह भी 1. प्रकृति, 2. स्थिति, 3. अनुभाग एवं 4. प्रदेश रूप से चार प्रकार के हैं।
11. अबाधाकाल : कर्म बंधने के पश्चात् एक निश्चित समय तक किसी प्रकार फल न देने की अवस्था का नाम अबाधा काल है। आबाधाकाल को जानने की विधि इस प्रकार है, कि जिस कर्म की स्थिति जितने सागरोपम की है, उतने ही सौ वर्ष का उसका अबाधाकाल होता है। जैसे ज्ञानावरणीय कर्म की स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम की है, तो आबाधाकाल तीस सौ (तीन हजार) वर्ष का है। भगवती सूत्र में अष्ट कर्म प्रकृतियों का अबाधाकाल बताया है।” तथा प्रज्ञापना में अष्ट कर्म की उत्तर प्रकृतियों का भी अबाधाकाल बताया गया है।
जैन कर्म साहित्य में इन कर्मों की अवस्थाओं एवं प्रक्रियाओं का जैसा विशेषण है, वैसा अन्य दार्शनिकों के साहित्य में दृष्टिगोचर नहीं होता। हाँ, योग-दर्शन में नियत विपाकी, अनियत विपाकी और आवापगमन के रूप में कर्म की त्रिविधा दशा का उल्लेख किया गया है। नियत विपाकी कर्म का अर्थ है-जो नियत समय पर अपना फल प्रदान करके नष्ट हो जाता है। अनियत विपाकी कर्म का अर्थ है - जो कर्म बिना फल दिए ही आत्मा से पृथक् हो जाते हैं और आवापगमन कर्म का अर्थ है - एक कर्म का दूसरे में मिल जाना।” योगदर्शन की इन त्रिविध अवस्थाओं की तुलना क्रमशः निकाचित, प्रदेशोदय और संक्रमण के साथ की जा सकती है।
कर्म-विपाक के आधार : जैन दर्शन में किसी भी कार्य की उत्पत्ति के लिए कर्म और उद्योग ये दो ही नहीं, अपितु पाँच कारण माने गये हैं - 1. काल, 2. स्वभाव, 3. कर्म, 4. पुरुषार्थ और 5. नियति। चूँकि जीवन का प्रत्येक कार्य जीव के अपने ही पूर्वकृत कर्मों का फल होता है। किंतु कर्म-फल की प्राप्ति स्वतः नहीं होती, वरन् अन्य तत्त्वों के सहयोग से ही कर्म अपना फल प्रदान करते हैं। अतः ये पाँचों तत्त्व (कारण) जानने योग्य हैं
1. काल : पुरुषार्थ, भाग्य या स्वभाव कोई भी काल के बिना कार्य नहीं कर सकता। शुभाशुभ कर्मों का फल तुरन्त ही नहीं मिलता, अपितु कालांतर में नियत समय पर ही मिलता है। एक नवजात शिशु को बोलना या चलना सिखाने के लिए चाहे कितना ही प्रयत्न किया जाए, वह जन्मते ही बोलना व चलना नहीं सीख सकता। वह काल या समय पाकर ही सीखेगा। रोगी को दवा पीते ही आराम नहीं मिलता,