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जैन दार्शनिक सिद्धान्त * 207
आहारपानी की साता पहुँचाना, जिससे वे आत्मसाधना में दृढ़ रह सकें। (iii) दान- निष्काम भाव से विनम्रता पूर्वक आहार दान, औषधदान, ज्ञानदान
और अभय दान देना दान है। (iv) सराग-संयमादि योग- इसके अन्तर्गत चार बातें समाविष्ट हैं1. सराग संयम- साधुवर्ग का रागभाव युक्त संयम।
संयमासंयम- श्रावक वर्ग का धर्म, जिसमें संयम और असंयम का मिलाजुला रुप हो। अकाम निर्जरा- वह निर्जरा, जिसमें परवशता से अनिच्छा से, भयादि प्रेरित होकर तप, त्याग या कष्ट सहन किया जाए। बाल तप - तत्वज्ञान से रहित मिथ्याज्ञान या अज्ञान से प्रेरित कायाकष्ट
आदि तप। इन चारों का मन-वचन-काया के योग से सम्पृक्त होना। (v) शान्ति- कषाय पर विजय प्राप्त करके क्षमा, सहनशीलता व सहिष्णुता
को धारण करना। (vi) शौच- पवित्रता अर्थात् निर्लोभ से आन्तरिक भावनात्मक शुद्धि। उपर्युक्त कारणों के विपरीत कर्म से असातावेदनीय कर्म-बन्ध होते हैं ये भी छ:
“दुःख-शोक-तापाक्रन्दन-वध-परिवेदनान्यत्म-परोभय
स्थान्यसवेद्यस्य।137 1. दुःख - भय या पीड़ा का अनुभव होना। 2. शोक- इष्ट वस्तु या व्यक्ति के वियोग और अनिष्ट वस्तु या व्यक्ति के
संयोग होने पर चिन्ता, क्षोभ, व्यग्रता होना। 3. ताप- निन्दा, अपमान आदि से मन में संताप होना। 4. आक्रन्दन- दुःख, भय, विपरीत परिस्थिति से पीड़ित होकर रोना,
चिल्लना, विलाप करना। 5. वध- पर प्राण, भूत, जीव, सत्वों को पीड़ित करना, ताड़ना, मारना
पीटना, कटू-वचन बोलना, वध करना आदि। 6. परिवेदन- गिड़गिड़ाना, दीनता प्रदर्शित करना, आंसू बहाकर अपनी हीनता
प्रकट करना। इन 6 कारणों से असाता वेदनीय कर्मबन्ध होता है, इन क्रियायों की तीव्रता मन्दता के अनुसार इनके 12 प्रकार हो जाते हैं।
___4. मोहनीय कर्म-बन्ध के कारण : सामान्य तथा मोहनीय कर्मबन्ध छ: कारणों से होता है- 1. तीव्र क्रोध 2. तीव्रमान, 3. तीव्रमाया, 4. तीव्रलोभ, 5. तीव्रदर्शन मोह (अविवेक) 6. तीव्र चारित्र मोह (अशुभाचरण), तीव्र मिथ्यात्व आदि