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204 * जैन संस्कृति का इतिहास एवं दर्शन
रखना मिथ्यात्व का द्वितीय सोपान है।
मिथ्यात्व आत्मा का सबसे बड़ा शत्रु है। मिथ्यात्वी जीव तो आस्रवमुक्त होने का पुरुषार्थ भी नहीं कर सकता है। क्योंकि उसका कोई भी प्रयास उसे गलत दिशा में ही ले जाएगा।
2. अविरति : "हिंसनृतस्तेया ब्रह्म परिग्रहभ्यो विरतिव्रतम्"" : अर्थात् हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह आदि से विरत होने को व्रत कहते हैं। इन पापों के त्याग की प्रतिज्ञा न हो, यह अविरति कहलाता है। कदाचित वर्तमान में हिंसादि पाप क्रिया नहीं की जा रही हो, फिर भी यदि यह न करने की प्रतिज्ञा न की हो, तो यह अविरति है। इससे कर्मबंध होता है। पाप का त्याग न करने का तात्पर्य है, कि पाप के प्रति अपेक्षा है, राग है।
3. प्रमाद : प्रमाद का अर्थ है- आत्मा को अपने चैतन्य स्परूप की विस्मृति होना तथा आत्मशुद्धि के प्रति अनुत्साह होना। प्रमाद से आत्मा की जागरुकता समाप्त हो जाती है। आध्यात्मिक अकर्मण्यता एवं आलस्य की स्थिति बन जाती है। आचार में शिथिलता आ जाती है। मद, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा ये पाँच प्रमाद हैं। उसी प्रकार राग, द्वेष, अज्ञानता, शंका, भ्रम, विस्मरण, मन, वचन, काया का दुष्प्रणिधान और धर्म में अनादर, अनुत्साह ये भी आठ प्रमाद हैं। यदि ये प्रमाद छोड़ दें, तो जीव अप्रमत्त महामुनि बन जाता है।
4. कषाय : जो आत्मगुणों को कषे- नष्ट करे अथवा जो जन्ममरण रुपी संसार को बढ़ावें, उन्हें कषाय कहते हैं। कषाय मुख्यतः चार हैं- क्रोध, मान, माया, लोभ। इन कषायों को उत्तेजित या प्रेरित करने वाले तत्वों को नोकषाय कहा जाता है। ये नौ हैं- हास्य, रति, अरति, भय, शोक, दुगुंछा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद तथा नपुंसकवेद।
मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद ये तीनों कपाय के उदय से ही निष्पन्न होते हैं। इन तीनों आस्रवों के समाप्त हो जाने पर भी कषाय से कर्म परमाणुओं का आगमन होता रहता है। कषाय के समाप्त हो जाने पर केवल योग से पुण्यबन्ध होता रहता है।
5. योग : वाचस्पति ने योग की व्याख्या करते हुए लिखा है, कि “काय वाङ्मनः कर्मयोगः।" अर्थात मन वचन काया के व्यापार प्रवृत्ति अर्थात् सक्रियता को योग कहते है। औदारिकादि वर्गण योग्य पुद्गलों के द्वारा प्रवर्तमान होने वाले योगों को काय योग कहते है। मतिज्ञानावर्ण, अक्षर- श्रुतवर्णादि कर्मों के क्षयोपशम से आन्तरिक (भाव) वाग्लब्ध उत्पन्न होते ही आत्मा के द्वारा वचनवर्गणा के माध्यम से जो भाषा प्रयुक्त होती है, उसे वचन योग कहते हैं। नौ इन्द्रिय जन्म मतिज्ञानावर्णी के क्षयोपशम से मन के परिणामों से आत्मा के जो प्रवृत्ति होती है, उसे मनयोग कहते हैं।
ये तीनों योग आस्रव कहे गए हैं। क्योंकि इनसे कर्मबन्ध होता है। जैसे